बुधवार, 21 मई 2008

हिन्दी साक्षात्कार विधा : स्वरूप एवं संभावनाएँ

डॉ. हरेराम पाठक
हिन्दी की आधुनिक गद्य विधाओं में ‘साक्षात्कार' विधा अभी भी शैशवावस्था में ही है। इसकी समकालीन गद्य विधाएँ-संस्मरण, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, आत्मकथा, अपनी लेखन आदि साहित्येतिहास में पर्याप्त महत्त्व प्राप्त कर चुकी हैं, परन्तु इतिहास लेखकों द्वारा साक्षात्कार विधा को विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना काफी आश्चर्यजनक है। आश्चर्यजनक इसलिए है कि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा ही एक ऐसी विधा है जिसके द्वारा किसी साहित्यकार के जीवन दर्शन एवं उसके दृष्टिकोण तथा उसकी अभिरुचियों की गहन एवं तथ्यमूलक जानकारी न्यूनातिन्यून समय में की जा सकती है। ऐसी सशक्त गद्य विधा का विकास उसकी गुणवत्ता के अनुपात में सही दर पर न हो सकना आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है।
परिवर्तन संसृति का नियम है। गद्य की अन्य विधाओं के विकसित होने का पर्याप्त अवसर मिला पर एक सीमा तक ही साक्षात्कार विधा के साथ ऐसा नहीं हुआ। आरंभ में उसे विकसित होने का अवसर नहीं मिला परंतु कालान्तर में उसके विकास की बहुआयामी संभावनाएँ दृष्टिगोचर होने लगीं। साहित्य की अन्य विधाएँ साहित्य के शिल्पगत दायरे में सिमट कर रह गयी हैं, परन्तु ‘साक्षात्कार' समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों की मनोवृत्तियों से सीधा साक्षात्कार करा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव ने इस विधा को इतना लोकप्रिय बनाया है कि इसके विकास की अनंत संभावनाएँ दिखाई दे रही हैं।
साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों से मुलाकात कर निर्धारित तिथि को उनके जीवन, रुचियों, कृतित्व, विचार, प्रेरणास्रोत आदि के संबंध में प्रश्न करता है और उनके दिये गये उत्तरों को लिपिबद्ध करता है। इस प्रकार के लिए गये साक्षात्कार में कल्पना का समावेश नहीं होता। अतः ये साक्षात्कार ऐतिहासिक तथ्य के रूप में धरोहर बन जाते हैं। कालान्तर में इन साक्षात्कारों का महत्त्व इतना बढ़ जाता है कि ये इतिहास, समाजशास्त्रा, राजनीतिशास्त्रा, अर्थविज्ञान, साहित्य का इतिहास आदि के लेखन में तथ्यमूलक प्रामाणिक दस्तावेज का काम करते हैं।
साहित्य की अन्य विधाओं के समान साक्षात्कार-लेखन कोई शगल नहीं है। संग्रह एवं संकलन की भावना इसमें संवेदनात्मक स्तर पर बहुत गहरी होती है। साक्षात्कारकर्ता की संवेदना व्यक्तिगत एवं वस्तुगत दोनों स्तरों पर होती है। साहित्य की अन्य विधाओं के समान यहाँ कल्पना-तत्त्व की कोई खास जगह नहीं होती। यदि कोरी भावुकता-प्रदर्शन एवं दुराग्रहपूर्ण विचार से बचा जाय तो साक्षात्कार जैसी सशक्त विधा कोई हो ही नहीं सकती।
हिन्दी साक्षात्कार विधा की बढ़ती लोकप्रियता के चलते आज उसके स्वरूप एवं संभावनाओं की पड़ताल होने लगी है। उसके ऐतिहासिक विकास-क्रम पर समीक्षक विचार करने लगे हैं। हिन्दी साहित्य में जैसे अन्य विधाओं की उत्पत्ति के विषय में विवाद चलते रहे हैं, उसी प्रकार साक्षात्कार विधा के उद्भव के विषय में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इस विधा का आरंभ श्री चन्द्रभान से मानते हैं तो कुछ पं. बनारसीदास चतुर्वेदी से। चतुर्वेदी जी ने ‘रत्नाकर जी से बातचीत' शीर्षक साक्षात्कार सितंबर, १९३१ के ‘विशाल भारत' में प्रकाशित किया था। इसके पश्चात्‌ ‘प्रेमचंद जी के साथ दो दिन' शीर्षक से उनका दूसरा साक्षात्कार जनवरी, १९३२ में ‘विशाल भारत' में ही प्रकाशित हुआ था। ‘हिन्दी इण्टरव्यू : उद्भव और विकास' नामक अपने शोध-प्रबन्ध में डॉ. विष्णु पंकज ने हिन्दी इण्टरव्यू विधा का जन्म सन्‌ १९०५ ई. से मानते हुए श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी को इसके प्रवर्तक के रूप में स्वीकार करते हैं। साक्षात्कार विधा का प्रारंभ भले ही सन्‌ १९०५ से माना जाय परन्तु यह सर्व विदित है कि बीसवीं सदी के तीसरे दशक में ही इस विधा का स्वस्थ अंकुरण हो पाया था। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी जैसे सुधी चिंतक ने ही इस विधा को पुष्पित एवं पल्लवित करने के लिए सर्वप्रथम सार्थक कदम बढ़ाया था। हिन्दी पत्रकारिता के उन्मुक्त प्रांगण में इस विधा का जन्म हुआ। आज इसका विकसित रूप पत्रकारिता, रेडियो, दूरदर्शन आदि से होता हुआ केबल चैनलों तक आ पहुँचा है। समयानुकूल एवं समसामयिक विषयों, घटनाओं आदि पर आधारित विशेषज्ञों के साक्षात्कार पुस्तकों, कैसेटों एवं सीडियों में संकलित किये जा रहे हैं।
पत्रकारिता के माध्यम से साक्षात्कार विधा को लोकप्रिय बनाने का श्रेय पं. श्रीराम शर्मा को दिया जाता है। डॉ. सत्येन्द्र ने ‘साधना' के मार्च-अप्रैल सन्‌ १९४१ अंक में अनेक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साक्षात्कार प्रस्तुत किये।
पुस्तकाकार रूप में लेखक बेनी माधव शर्मा ने ‘कविदर्शन' प्रकाशित कराया जिसमें श्री हरिऔध, श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, सनेही आदि साहित्यकारों के साक्षात्कार सामने आये, परन्तु शैली की रोचकता के अभाव में इस पुस्तक को लोकप्रियता नहीं प्राप्त हो सकी। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित साक्षात्कार विधा की प्रभावशाली पुस्तक डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश' की ‘मैं इनसे मिला' है।
साहित्य की अन्य विधाओं में यांत्रिाकता अथवा अस्वाभाविकता हो सकती है, परन्तु साक्षात्कार विधा इनसे बिलकुल अछूती होती है। एक बार जब डॉ. पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश' मुम्बई के वयोवृद्ध हिन्दी पत्राकार तथा नाटककार हरिकृष्ण जौहर से साक्षात्कार लेने हेतु उनके आवास पर पहुँचे तो श्री कृष्ण जौहर ने गद्गद् होकर कहा था : ‘‘मेरे जीवन के अंतिम दिनों में आज, आप मेरी साहित्य साधना के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए आने वाले एक मात्रसज्जन हैं। मेरे हर्ष की अब कोई सीमा नहीं है।''
उपर्युक्त कथन के आधार पर ही डॉ. कमलेश ने ‘मैं इनसे मिला' की पृष्ठभूमि में लिखा है : ‘‘उस वयोवृद्ध साहित्यकार के इन शब्दों ने मुझे अनुभव कराया कि उन जैसे अनेक महारथी हिन्दी की सेवा में मर खप रहे हैं और उनके संबंध में कोई कुछ नहीं लिखता। फलतः लोगों को उनके जीवन के विषय में भी कोई जानकारी नहीं होती। यदि ऐसे अनुभवी साहित्यकारों से उनके संग्रह हो सकें तो हिन्दी में एक नयी सामग्री भावी आलोचकों और इतिहास लेखकों को मिल जायेगी जिसके प्रकाश में वे उनके साहित्य को ठीक-ठीक कसौटी पर कस सकेंगे।''
उपर्युक्त कथनों से यह प्रमाणित होता है कि साक्षात्कार विधा साहित्य को अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय बनाने की एक सशक्त विधा है। साहित्य को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने-परखने एवं समझने की दार्शनिक पद्वति ही ‘साक्षात्कार' है।
डॉ. कमलेश जी द्वारा उग्र जी एवं जौहर जी पर लिए गये साक्षात्कार दिल्ली के ‘नवयुग' में प्रकाशित हुए। पाठकों ने इन साक्षात्कारों की काफी प्रशंसा की। परिणामस्वरूप दो खंडों में हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साक्षात्कार उन्होंने प्रकाशित कराये।
कविवर रामधारी सिंह ‘दिनकर' का ‘वट-पीपल' एक ऐसी पुस्तक है जिसमें साक्षात्कार, संस्मरण एवं रेखाचित्रतीनों एक ही साथ समाहित हैं। ‘वट पीपल' में श्री काशी प्रसाद जायसवाल, राहुल सांकृत्यायन, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन', सुमित्राानंदन पंत, मराठी साहित्य के मामा बरेकर, नृत्यांगना रुक्मिणी देवी तथा पोलैण्ड के राष्ट्रकवि अदम मित्स के संस्मरण एवं साक्षात्कार हैं।
हिन्दी के सशक्त लोक साहित्यकार स्व. देवेन्द्र सत्यार्थी द्वारा रचित ‘कला के हस्ताक्षर' साक्षात्कार की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसका प्रकाशन सन्‌ १९५४ में हुआ था।
डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश' तथा ‘देवेन्द्र सत्यार्थी' के बाद हिन्दी साहित्य में साक्षात्कार विधा के अनेक लेखक सामने आये। इस विधा का विकास इतनी तेजी से हुआ कि केवल हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि ग़ैर हिन्दी भाषी तथा विदेशी साहित्यकारों के साक्षात्कार भी हिन्दी में प्रकाशित होने लगे। राजेन्द्र यादव ने रूसी साहित्यकार एण्टन चेखव से भेंटकर उनका साक्षात्कार प्रकाशित कराया। सन्‌ १९६६ में सेठ गोविन्द दास द्वारा आचार्य रजनीश से लिया गया साक्षात्कार ‘माध्यम' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। सन्‌ १९६५ में हरवंश लाल शर्मा की पुस्तक ‘उदयशंकर भट्ट : व्यक्ति और साहित्यकार' प्रकाश में आयी जिसमें कुछ साहित्यकारों एवं कलाकारों के साक्षात्कार समाविष्ट हैं। सन्‌ १९६२ ई. में ‘समय और हम' शीर्षक से प्रकाशित वीरेन्द्र कुमार गुप्त की पुस्तक जैनेन्द्र जी से लिये गए साक्षात्कार पर आधारित एक कालजयी कृति है।
बीसवीं सदी के सातवें दशक से इस विधा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए जिसका प्रभाव आज तक विद्यमान है। इसके पहले सामान्यतः विख्यात लोगों के साक्षात्कार ही प्रकाशित होते थे परन्तु सातवें दशक से वैसे लोगों के साक्षात्कार भी सामने आने लगे जो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे लोगों के साक्षात्कार से बहुत सारी बातें निष्पक्ष रूप से सामने आती हैं। सातवें, आठवें एवं नवें दशक में इस विधा में काफी लचीलापन आया। मनोहर श्याम जोशी, शैलेश मटियानी, प्रेम कपूर, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, ओमप्रकाश शर्मा आदि साहित्यकारों ने इस विधा को काफी महिमा मंडित किया। श्री अक्षय कुमार जैन, कन्हैयालाल नंदन, विष्णुकांत शास्त्राी, डॉ. धर्मवीर भारती, डॉ. शिवदान सिंह चौहान, दूधनाथ सिंह, प्रदीप पंत, डॉ. बापूराव देसाई आदि साहित्यकारों ने इस विधा को और अधिक सशक्त किया। महिला साक्षात्कारों में डॉ. सची रानी गुर्टू, विपुला देवी, सुशीला अग्रवाल, डॉ. माजदा असद, सावित्री परमार, वीणा अग्रवाल, सुधा अग्रवाल आदि प्रमुख हैं।
इक्कीसवीं सदी के इन पाँच-छह वर्षों में ‘हंस', ‘आजकल', ‘नया ज्ञानोदय', साहित्य अमृत', ‘आलोचना', द्वीप लहरी', ‘वाङ्मय', ‘भाषा', ‘समकालीन भारतीय साहित्य' हिन्दुस्तान दैनिक आदि पत्रा-पत्रिकाओं में साक्षात्कार विधा को काफी महत्त्व मिला है। प्रायः इन पत्र-पत्रिकाओं में किसी न किसी व्यक्ति का साक्षात्कार होता ही है। इक्कीसवीं सदी में अब तक लिये गये साक्षात्कारों की संख्या सैकड़ों हैं जिनका मूल्यांकन कर पाना यहाँ संभव नहीं है। फिर भी कुछ साक्षात्कारों का नामोल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा। इन साक्षात्कारों में प्रकाश प्रसाद उपाध्याय और शुभंकर मिश्र द्वारा कमला सांकृत्यायन से लिया गया साक्षात्कार, ललित खुराना और सीमा ओझा द्वारा गिरिराज किशोर से लिया गया साक्षात्कार, कमलेश भट्ट ‘कमल' द्वारा गोपालदास नीरज से लिया गया साक्षात्कार आदि में लेखकों की पीड़ाएँ उभरकर सामने आयी हैं।
‘साक्षात्कार' लेना भी एक कला है। इसके लिये पर्याप्त परिपक्वतों एवं सूझ-बूझ की आवश्यकता होती है। साक्षात्कार लेने के कुछ सामान्य नियमों की यहाँ जानकारी दी जा रही है -
(१) साक्षात्कार के लिये सर्वप्रथम जिस व्यक्ति का चुनाव करें उसके कार्य-क्षेत्रा, अभिरुचियों आदि के विषय में पूरी जानकारी प्राप्त कर लें।
(२) जिस व्यक्ति का साक्षात्कार लेना हो उसके कार्य-क्षेत्र के विषय के अनुसार प्रश्नावली तैयार कर लें।
(३) जिसका साक्षात्कार लेना हो उससे मिलकर अथवा दूरभाष से संपर्क स्थापित कर तिथि, समय एवं स्थान निश्चित करें।
(४) प्रस्तुत साक्षात्कार के संबंध में भेंट नायक को अपना उद्देश्य स्पष्ट करें।
(५) चयनित भेंट नायक से वही प्रश्न करें जिस पर उन्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो।
(६) आप जब भी प्रश्न करें इसका ख्याल अवश्य रखें कि आप सामान्य जनता की ओर से प्रश्न कर रहे हैं। श्रोता एवं पाठक को आपका प्रश्न उन्हें अपना जैसा लगना चाहिए।
(७) साक्षात्कार के समय दोनों का प्रसन्नचित्त एवं सहज होना आवश्यक है।
(८) जिनका साक्षात्कार लिया गया हो, यदि उनकी इच्छा हो तो साक्षात्कार के लिखित अथवा टेप किये हुए अंश को उन्हें दिखा दें।
(९) साक्षात्कार के दौरान कोई ऐसा प्रश्न न उठावें जिससे साक्षात्कार देने वाले व्यक्ति की जाति, धर्म अथवा व्यक्तिगत अभिरुचियों को ढेस पहुँचे।
(१०) साक्षात्कार के अंत में धन्यवाद ज्ञापन करें।
दूरभाष एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बढ़ते प्रभाव से साक्षात्कार विधा में गत्यात्मक परिवर्तन होना स्वाभाविक है। आजकल के अत्यंत व्यस्ततम युग में यह संभव नहीं है कि प्रत्येक साहित्यकार के घर जाकर साक्षात्कार लिया जाय। अतः ऐसी परिस्थिति में निःसंकोच दूरभाष का प्रयोग किया जा सकता है। कुछ बड़े लेखक इसे अपनी मर्यादा के खिलाफ ले सकते हैं। परन्तु मेरी समझ से ऐसा सोचना व्यर्थ है। साहित्य के प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण हेतु हमें आधुनिक तकनीकी का सहारा लेना ही पड़ेगा।
यद्यपि हिन्दी साक्षात्कार विधा की उत्तरोत्तर प्रगति हुई है, फिर भी इसमें बहुत कुछ करना अभी भी बाकी है। अभी भी साहित्य की विभिन्न विधाओं के विद्वानों से अलग-अलग साक्षात्कार लेकर उसे प्रकाशित करने का कार्य नहीं हो पाया है। व्यक्तित्व केन्द्रित साक्षात्कार तो बहुत लिए जा रहे हैं परन्तु कृति-केन्द्रित साक्षात्कारों की कमी अभी भी खलती है। इस क्षेत्र में सार्थक पहल की आवश्यकता है।
बदलते समय के अनुसार साक्षात्कार लेने की पद्वति में परिवर्तन होना चाहिए। यदि साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन की छाप उसके साहित्य में है और अगर वह उसे स्वीकार करता है तो साक्षात्कारकर्त्ता सामान्यजन की जिज्ञासा का ख्याल रखते हुए उक्त साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन संबंधी प्रश्न भी कर सकता है, परन्तु मर्यादा के भीतर रहकर ही। बहुत-सी ऐसी साहित्यिक कृतियाँ हैं जो अभी भी विवादों के घेरे में हैं उन कृतियों के रचनाकारों से उन विवादित समस्याओं से संबंधित प्रश्न कर सकते हैं, इससे साक्षात्कार विधा को और मजबूती मिलेगी।
ज्ञानवर्द्धक साक्षात्कारों को पाठ्यक्रम में स्थान देना भी आवश्यक है। इससे साक्षात्कार लेने वाले व्यक्तियों का मनोबल भी बढ़ेगा और इस विधा का विकास होगा।
सारांशतः हम यह कह सकते हैं कि आधुनिक साक्षात्कार विधा का भविष्य उज्ज्वल है। वह समय दूर नहीं है जबकि साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा साक्षात्कार विधा की गरिमा एवं लोकप्रियता अधिक विकसित होगी।

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प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से संबंधित साक्षात्कार की सैद्धान्तिकी में अंतर

विज्ञान भूषण
अंग्रेजी शब्द ‘इन्टरव्यू' के शब्दार्थ के रूप में, साक्षात्कार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका सीधा आशय साक्षात्‌ कराना तथा साक्षात्‌ करना से होता है। इस तरह ये स्पष्ट है कि साक्षात्कार वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति विशेष को साक्षात्‌ करा दे। गहरे अर्थों में साक्षात्‌ कराने का मतलब किसी अभीष्ट व्यक्ति के अन्तस्‌ का अवलोकन करना होता है। किसी भी क्षेत्र विशेष में चर्चित या विशिष्ट उपलब्धि हासिल करने वाले व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की जानकारी जिस विधि के द्वारा प्राप्त की जाती है उसे ही साक्षात्कार कहते हैं।
मौलिक रूप से साक्षात्कार दो तरह के होते हैं -१. प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार २. माध्यमोपयोगी साक्षात्कार
प्रतियोगितात्मक साक्षात्कार का उद्देश्य और चरित्रमाध्यमोपयोगी साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न होता है। इसका आयोजन सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों में नौकरी से पूर्व सेवायोजक के द्वारा उचित अभ्यर्थी के चयन हेतु किया जाता है; जबकि माध्यमोपयोगी साक्षात्कार, जनसंचार माध्यमों के द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाये जाते हैं। जनमाध्यम की प्रकृति के आधार पर साक्षात्कार भी भिन्न प्रकार से आयोजित किये जाते हैं। इनके सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्षों में भी बहुत अंतर होता है। जिसकी सम्पूर्ण और स्पष्ट जानकारी का होना, साक्षात्कारदाता और साक्षात्कारकर्ता दोनों के लिए आवश्यक होता है। माध्यम के अनुसार ही कर्ता और दाता अपनी तैयारी कर सकते हैं और फलस्वरूप साक्षात्कार की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है।
जनमाध्यमों के आधार पर साक्षात्कार दो प्रकार का हो सकता है -१. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए साक्षात्कार। २. प्रिंट मीडिया के लिए साक्षात्कार।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए साक्षात्कार
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अन्तर्गत रेडियो और टेलीविजन को शामिल किया जाता है। इन माध्यमों के लिए आयोजित किये जाने वाले साक्षात्कार की सफलता में तकनीकी पक्ष का भी विशेष महत्त्व होता है। जहाँ एक तरफ रेडियो श्रव्य माध्यम है वहीं दूसरी तरफ टी.वी. दृश्य-श्रव्य माध्यम है। यदि हमें रेडियो के लिए साक्षात्कार करना है तो टेपांकन विधि से परिचित होना साक्षात्कारदाता और साक्षात्कारकर्त्ता दोनों के लिए जरूरी है।
पूर्व निर्धारित किसी स्थान विशेष या स्टूडियो में साक्षात्कार में शामिल होने से पूर्व दाता और कर्ता को माध्यम के तकनीकी पक्षों और गुणों की पूरी तरह जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। आवाज की गति, तीव्रता, उच्चारण, माइक्रोफोन की निश्चित दिशा एवं स्थिति आदि के संबंध में पूरी तरह सहज होने पर ही एक अच्छे साक्षात्कार का आयोजन संभव हो सकता है। रेडियो के लिए किये जाने वाले साक्षात्कार के संबंध में साक्षात्कारकर्ता और दाता को भी स्मरण रखना चाहिए कि एक बार टेपांकित हो जाने के बाद उसमें संपादन की गुंजाइश बहुत कम और सीमित ही रहती है। कहने का अर्थ यह है कि साक्षात्कार में शामिल व्यक्तियों की बातचीत, श्रोता सीधे सुनता है, इसलिए उसमें सुधार की संभावना कम ही रहती है। इसी तरह टी.वी. के लिए भी आयोजित किये जाने वाले साक्षात्कार में भी अत्यंत सावधानी की जरूरत होती है। बल्कि दृश्य-श्रव्य माध्यम होने के कारण टी.वी. के लिए आयोजित किए जाने वाले साक्षात्कार में अतिरिक्त ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
जहाँ एक तरफ रेडियो माध्यम में दाता और कर्ता की बातचीत को श्रोता सिर्फ सुन ही सकता है वहीं दूसरी तरफ टी.वी. के लिए आयोजित साक्षात्कार को लोग, सुनने के साथ-साथ देख भी सकते हैं। इसलिए साक्षात्कारकर्ता और साक्षात्कारदाता को अपने हाव-भाव, शारीरिक गतियों और चेहरे की भावाभिव्यक्तियों के प्रति भी सावधान रहना आवश्यक है। उनके द्वारा की जाने वाली प्रत्येक गतिविधि को लाखों-करोड़ों दर्शक देख रहे हैं, इस बात का भी ध्यान कर्ता और दाता को रखना पड़ता है।
इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के लिए आयोजित किये जाने वाले साक्षात्कार के द्वारा किसी भी कार्यक्रम या समाचार में प्रामाणिकता एवं जीवंतता उत्पन्न हो जाती है। लेकिन इसके साथ ही साथ जरा-सी असावधानी व लापरवाही से पूरा साक्षात्कार और कार्यक्रम ध्वस्त होने का भी भय बना रहता है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से प्रसारित साक्षात्कार के दौरान कही गई किसी बात को समझने के लिए श्रोताओं या दर्शकों के पास उसे दोबारा सुनने या देखने की सुविधा नहीं होती है। इसलिए इन माध्यमों के साक्षात्कार में प्रश्नों और उनके उत्तरों का आकार यथासंभव छोटे और सीधी सरल भाषा में शीघ्रता से समझ में आने वाली होनी चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का उपयोग साक्षर और निरक्षर दोनों प्रकार के व्यक्ति करते हैं, इसलिए इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के लिए आयोजित साक्षात्कार की भाषा का सरल होना अतिआवश्यक होता है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के साक्षात्कार में समय सीमा का ध्यान भी रखना पड़ता है अर्थात्‌ साक्षात्कारकर्ता (जो कि साक्षात्कार का नियामक होता है) को इस बात का स्मरण रखना पड़ता है कि कोई भी प्रश्न बहुत लम्बा अस्पष्ट या विषय से अलग न हो। क्योंकि आयोजित किये जाने वाले साक्षात्कार के द्वारा एक निश्चित अवधि में अपने मूल विषय और निष्कर्ष पर पहुँचना रहता है।
प्रिंट मीडिया के लिए साक्षात्कार
रेडियो और टी.वी. के लिए आयोजित किए जाने वाले साक्षात्कार से पूरी तरह भिन्न प्रकृति का साक्षात्कार प्रिंट माध्यम का होता है। यद्यपि इस माध्यम के साक्षात्कार में भी कर्ता टेपरिकार्डर का उपयोग कर सकता है लेकिन उसे अंतिम रूप में लिप्यांकित ही करना पड़ता है।
प्रिंट मीडिया के लिए किये जाने वाले साक्षात्कार में दाता और कर्ता के हाव-हाव, शारीरिक गतियों और वेश-भूषा का कोई महत्त्व नहीं होता है। इस माध्यम के साक्षात्कार में सुधार करने की भी भरपूर संभावनाएँ होती हैं, क्योंकि यह साक्षात्कार दर्शकों या श्रोताओं की तरह तुरन्त या उसी रूप में पाठकों को प्रस्तुत नहीं किया जाता है। साक्षात्कार आयोजन के पश्चात्‌ संपादक अपनी कुशलता से साक्षात्कार की प्रभावपूर्ण प्रस्तुति प्रदान कर देता है। प्रिंट मीडिया के साक्षात्कार में भाषा सरल या विषयानुसार क्लिष्ट भी हो सकती है, क्योंकि इसे पढ़ने वाला व्यक्ति साक्षर तो अवश्य ही होगा, साथ ही साथ किसी शब्द, वाक्य या विषय को समझने के लिए पाठक के पास एक से अधिक बार पढ़ने की भी सुविधा होती है। इस माध्यम के साक्षात्कार में समय सीमा का भी कोई प्रतिबंध नहीं होता है लेकिन समाचार पत्रया पत्रिका में उपलब्ध स्थान की जानकारी अवश्य रखनी पड़ती है। प्रिंट मीडिया के लिए यदा-कदा सुविधानुसार साक्षात्कारदाता को प्रश्न लिखकर भी दे दिये जाते हैं, जिनका उत्तर वह लिखकर भी प्रेषित कर देता है और फिर उसे प्रकाशित कर दिया जाता है। कहने का अर्थ यह है कि प्रिंट मीडिया के साक्षात्कार में दाता और कर्ता को एक-दूसरे के सामने बैठकर बातचीत करने की बाध्यता नहीं होती है, जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साक्षात्कार में ऐसा करना आवश्यक होता है।
प्रिंट माध्यम में साक्षात्कार को प्रस्तुत करने के लिए वर्णनात्मक शैली भी अपनाई जा सकती है। जिसमें प्रश्नकर्ता अपने द्वारा पूछे गये प्रश्नों और दाता द्वारा दिये गये उत्तरों को जोड़ते हुए क्रमबद्ध रूप में, एक कथात्मक शैली में प्रस्तुत करता है। इसमें साक्षात्कार लेखक, साक्षात्कार दाता की भावाभिव्यक्ति को भी लिख देता है। प्रिंट माध्यम के साक्षात्कार में प्रारम्भिक अभिवादन और समाप्ति पर अभिवादन जैसी औपचारिकताओं की आवश्यकता नहीं होती है। सीधे तौर पर साक्षात्कारदाता का संक्षिप्त परिचय ही लिख दिया जाता है।
उपर्युक्त दोनों, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के लिए आयोजित किये जाने वाले साक्षात्कारों में कुछ तथ्यों में समानता भी होती है, जिनका ध्यान रखना आवश्यक है। उदाहरण स्वरूप दोनों ही माध्यमों के साक्षात्कारों के लिए प्रश्नोत्तर शैली ही अधिकांशतः प्रयोग में लायी जाती है। इसके लिए साक्षात्कारकर्ता को साक्षात्कार में शामिल होने से पूर्व ही कुछ प्रश्न तैयार करने पड़ते हैं। इन्हें संरचनात्मक प्रश्न कहते हैं। लेकिन पूरा साक्षात्कार बनी बनायी प्रश्नावली पर आधारित करने पर वह नीरस हो जाता है इसलिए यह आवश्यक है कि प्रश्नकर्ता अपनी बौद्धिक क्षमता एवं त्वरित निष्कर्ष निकालने की क्षमता के द्वारा साक्षात्कार के दौरान ही कुछ असंरचनात्मक प्रश्न भी पूछ ले। इन्हीं प्रश्नों के द्वारा साक्षात्कार में जीवंतता कायम रहती है और पाठक, श्रोता या दर्शक पूरी रुचि के साथ साक्षात्कार पढ़ता, सुनता या देखता है। दोनों प्रकार के माध्यमों के लिए आयोजित साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता को दाता का परिचय, उसके व्यक्तित्व, कृतित्व और पृष्ठभूमि के बारे में बताना पड़ता है।
साक्षात्कार में दाता पूरी सहजता से सहभागिता करे इसके लिए आवश्यक है कि साक्षात्कारकर्ता पहले प्रश्न पूछे और साथ ही साथ दाता के उत्तर देने के दौरान उसमें विन न डाले। यदि साक्षात्कारदाता किसी प्रश्न का उत्तर विषय से परे हटकर या अनावश्यक रूप से विस्तारित शैली में देने लगे तो उन्हें पूरी शालीनता के साथ मुख्य विषय से जोड़ने का प्रयास करना, साक्षात्कारकर्ता का ही कर्तव्य होता है। इस तरह यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि माध्यम चाहे कोई भी हो(प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक) साक्षात्कार का नियंत्राण पूरी तरह साक्षात्कारकर्ता के हाथों में ही रहता है।




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मंगलवार, 20 मई 2008

साहित्य एवं मीडिया में साक्षात्कार - एक दृष्टि


अशफ़ाक़ क़ादरी
साक्षात्कार मानवीय अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में यह विधा भेंटवार्ता, इंटरव्यू, बातचीत, मुलाकात, भेंट के रूप में खासी लोकप्रिय है। जहाँ साहित्य के क्षेत्र में एक रचनाकार के जीवन, रचनाकर्म, विचारों, जज्बातों को समझने का सबसे प्रामाणिक जरिया साक्षात्कार है तो प्रिन्ट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की विश्वसनीयता का आधार साक्षात्कार है। साक्षात्कार के बिना प्रसारित समाचार अपुष्ट है। पत्रकारिता के सभी अंगों को साक्षात्कार प्रभावित करता है यह विधा कहीं प्रत्यक्ष के रूप में हमारे सामने होती है तो कभी अप्रत्यक्ष के रूप में अपना असर दिखाती है।
प्रिन्ट मीडिया में साक्षात्कार के स्तंभों के अलावा मुख्य पृष्ठ पर राजनेताओं, अधिकारियों के साक्षात्कार या उसके अंश इन दिनों समाचारों को पुष्ट करते नजर आते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समाचारों की विश्वसनीयता के लिए संबंधित नेता या अधिकारी से भेंटवार्ता की ‘‘क्लिपिंग'' या ‘‘बाईट'' उसे विश्वसनीयता प्रदान करती है। ‘‘आज तक'' चैनल में सीधी बात में आक्रामक तेवर ने साक्षात्कार को नये आयाम दिये है। जी.टी.वी. और अब इंडिया टी.वी. पर ‘‘आपकी अदालत'' में रजत शर्मा द्वारा चर्चित व्यक्ति से न्यायालयी भाषा में सवाल पूछना व जनता की भागीदारी ने साक्षात्कार के नये रूप दिखाये हैं।
साक्षात्कार की आवश्यकता
साक्षात्कार की आवश्यकता को जानने के लिए हमें दूसरों के विषय में सब कुछ जानने की मानवीय जिज्ञासा की प्रवृत्ति को समझना होगा। इंसान दूसरों के बारे में विशेषकर चर्चित, प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध लोगों के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता है। वह अपने विषय में या अपने विचार दूसरों को बताने का इच्छुक भी रहता है। वह अपने अनुभवों का लाभ दूसरों तक तथा दूसरों के तजुर्बों का फायदा खुद हासिल करना चाहता है। शायद इसी जरूरत ने साक्षात्कार विधा को जन्म दिया। साक्षात्कार मानव प्रवृत्ति की इन आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
साक्षात्कार क्या है?
सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन इस संबंध में कहते थे : ‘‘इंटरव्यू का मकसद है पढ़ने वाला यह अनुभव करे कि जैसे वह कवि विशेष से मिल आया है। उसके पास हो आया है। उसे सूंघ आया है, उसे गले लगा आया है।'' हिन्दी के प्रख्यात आलोचक डॉ. नगेन्द्र ने इस विधा को परिभाषित करते हुए कहा कि ‘‘इंटरव्यू से अभिप्रायः उस रचना से है जिसमें लेखक व्यक्ति विशेष के साथ साक्षात्कार करने के बाद प्रायः किसी निश्चित प्रश्नमाला के आधार पर उसके व्यक्तित्व-कृतित्व के संबंध में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करता है और फिर मन पर पड़े प्रभाव को लिपिबद्ध कर डालता है।''
पत्रकारिता के संदर्भ में ‘‘रैडमा हाउस'' शब्दकोश में साक्षात्कार को इस प्रकार परिभाषित किया है : ‘‘साक्षात्कार उस वार्ता अथवा भेंट को कहा गया है जिसमें संवाददाता (पत्रकार) या लेखक किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों के सवाल-जवाब के आधार पर किसी समाचार पत्रमें प्रकाशन के लिए अथवा टेलीविजन पर प्रसारण हेतु सामग्री एकत्रकरता है।''
पत्रकारिता एवं साहित्य में जो साक्षात्कार हो रहे हैं उनमें श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का कथन समीचीन है : ‘‘मैंने इंटरव्यू के लिए बरसों पहले एक शब्द रचा था - ‘‘अंतर्व्यूह''। मेरा भाव यह है कि इंटरव्यू के द्वारा हम सामने वाले के अंतर में एक व्यूह रचना करते हैं। मतलब यह कि दूसरा उसे बचा न सके। जो हम उससे पाना चाहते हैं। यह एक तरह का युद्ध है और इंटरव्यू हमारी रणनीति, स्ट्रेट्रेजी, व्यूह रचना है। यह भी होता है कि सामने वाला हमसे कुछ भी छिपाना नहीं चाहता पर उसकी स्मृति में जाने क्या-क्या छिपा हुआ है जो समय उसे याद नहीं। इस प्रकार सामने वाले को प्रेरणा देना भी अंतर्व्यूह का अंग है। सबसे आवश्यक बात यह है, जिसमें इंटरव्यू की सफलता होती है, कि सामने वाले जो नहीं कहना चाहता वह भी हम उससे कहला लेते हैं, अंतर्व्यूह के द्वारा इसके लिए प्रश्न को इस सादगी से पूछते हैं कि सामने वाला चौंकता नहीं कि उससे कोई खास बात पूछी जा रही है और वह सादगी से जवाब दे देता है या कम से कम ऐसा संकेत मिल जाता है कि जिससे हम किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं। इस प्रकार इंटरव्यू में मित्रकी प्रेरणा है, जासूस की चालाकी भी और विषय के ज्ञान की विद्वता भी, क्योंकि ऐसा न हो तो हम उपयुक्त प्रेरक प्रश्न ही नहीं पूछ सकते।''
साक्षात्कार के माहिर वीरेन्द्र कुमार गुप्त के अनुसार ‘‘इंटरव्यू में दो व्यक्तियों की रगड़ व टकराहट हो तभी सर्वोत्तम रहता है। प्रश्नकर्ता का निर्जीव, खुशामदी होना अथवा उत्तरदाता का अहंकारी व स्वागोपी होना घातक होता है। दोनों व्यक्तियों में अंतर्व्यथा हो तो दोनों ही संभोग-सा रस पाते हैं।''
कथाकार जैनेन्द्र कुमार जी कहते हैं कि ‘‘यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम मुझसे क्या निकलवाते हो। तुम चाहो तो ऐसी स्थिति पैदा कर सकते हो कि मुझे विवश कर दो और अपने अनुकूल बातें निकलवा लो। मैं तो अपनी ओर से कुछ करने का नहीं।''
आज साहित्य एवं पत्रकारिता की दुनिया में सामने वाले से कुछ निकलवाने के लिए रणनीति, टकराहट, प्रतिस्पर्द्धा चल रही है जिसमें सामयिक घटनाओं के प्रति संबंधित व्यक्तियों के शोले उगलते शब्द साक्षात्कार के माध्यम से सामने आते हैं।
साक्षात्कार में बोलती अन्य विधाएँ
वर्तमान प्रकाशित एवं प्रसारित साक्षात्कारों का अवलोकन करें तो हम अपने अध्ययन में इस विधा के बहुआयामी रूपों का दर्शन कर सकते हैं। इसमें निबन्ध, संस्मरण, रेखाचित्र, जीवनी, आत्मकथा, नाटक (संवाद) के तत्त्व सीमित और सहायक रूप में नजर आते हैं। साक्षात्कार का प्रमुख आधार संवाद है जो इंटरव्यू लेने व देने वाले की बातचीत, बहस को पुष्ट करता है। जब एक लेखक अपने साक्षात्कार में परिस्थिति, पात्रका परिचय, वातावरण का चित्रण करता है तो निबंधात्मक हो जाता है। जब सामने वाला अपनी यादें बयान करने लगता है तो संस्मरण के तत्त्व सामने आते हैं। जब लेखक अपने पात्रकी वेशभूषा व व्यक्तित्व का वर्णन करने लगता है तो वह रेखाचित्रात्मक बन जाता है। जब सामने वाला किसी घटना, पात्रया परिस्थिति पर आक्रोश जाहिर करने लगता है तो आलोचना के तत्त्व भी दृष्टिगोचर होते हैं। मगर फिर भी साक्षात्कार एक स्वतंत्रविधा है।
आजकल साक्षात्कार मात्रदो व्यक्तियों की बातचीत न होकर जनसमूह से बात करने का माध्यम भी बन गया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ‘‘आपकी अदालत'' में उपस्थित दर्शक भी अपने सवाल पूछते हैं। संवाददाता सम्मेलनों में पत्राकार सवाल पूछते हैं। वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये किसी व्यक्ति से सवाल पूछकर उसके विरोधी की प्रतिक्रिया भी दिखायी जाती है।
आजकल मीडिया में साक्षात्कार के विविध रूप सामने आ रहे हैं। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में एक रचनाकार के बचपन, शिक्षा, रुचियों, योजनाओं, जज्बातों, विचारों से ओत-प्रोत व्यक्तिनिष्ठ साक्षात्कार छपते हैं जो आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से गायब होते जा रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो विषयनिष्ठ साक्षात्कारों के अंश प्रसारित होते हैं। विवरण की प्रधानता वाले या निबंधात्मक साक्षात्कार भी मात्रपत्र-पत्रिकाओं में जगह पाते हैं। आजकल सामयिक घटनाओं पर विचारात्मक साक्षात्कारों की तेजी है। इसमें साक्षात्कार लेने व देने वाले दोनों बहस पर उतारू रहते हैं। ये विचारोत्तेजक साक्षात्कार पाठकों या दर्शकों पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आजकल सेटेलाईट चैनलों पर ऐसे साक्षात्कार मकबूल हो रहे हैं। ‘‘आज तक'' चैनल में ‘सीधी बात' में प्रभु चावला सामने वाले को बचने का अवसर नहीं देते। ‘‘आप की अदालत'' में रजत शर्मा कटघरे में सामने वाले को सांस तक नहीं लेने देते हैं। एक जमाने में ‘‘दूरदर्शन'' पर ‘‘फल खिले हैं - गुलशन-गुलशन'' जैसे तबस्सुम के खिलखिलाते साक्षात्कार भी परदे के पीछे जा रहे हैं। इस प्रकार साक्षात्कार विधा के बदलाव और विकास की प्रक्रिया तेजी से चल रही है।
साक्षात्कार की विकास यात्रा
हमारे देश में प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में संवाद को साक्षात्कार का प्राचीन रूप माना जाता है। नचिकेता-यम संवाद, मरणासन्न रावण से लक्ष्मण का संवाद, भीष्म - युधिष्ठिर संवाद, कृष्णार्जुन-संवाद (गीता) भरत-आत्रोय संवाद, गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद, गौतम-सत्यकाम संवाद आदि साक्षात्कार का पूर्व रूप माने जा सकते हैं।
पश्चिम में १९वीं शताब्दी के साक्षात्कारों में कवि लैंडर की गद्य पुस्तक ‘‘इमेजिनरी कन्वसेशंस'' (सृजनकाल १८२४-५३) में अतीत के महान्‌ साहित्यिक पात्रों के लगभग १५० काल्पनिक वार्तालाप हैं, जिनमें जीवन और साहित्य से जुड़े अनेक विषय शामिल हैं। ‘‘पेंटामेरान'' में पेद्राक व कोकेशियों के संवाद हैं। पश्चिम में रिव्यू आफ रिव्यूज के एडीटर स्टीड साक्षात्कार कला के महान्‌ विद्वान थे। दुनिया में नेलीसन, रोम्या रौलां, लुई फिशर, गाइटेलेज, रोबिन डे, जार्ज शेफर, फील्डर कुक, राईनर, मेंनवेल, रिचर्ड बर्गिन, स्टीव चिचर्डरास, डायना गुडमैन, डिस्का जोकी आदि पश्चिम के प्रमुख साक्षात्कारकर्ता हैं।
भारत में देश की सभी भाषाओं के साहित्य, समाचार पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी, दूरदर्शन, सेटेलाईट चैनलों पर साक्षात्कार छाया हुआ है। अंग्रेजी में दिलीप कुमार राय की किताब ‘‘अमंग द ग्रेट'' (१९५१-६०) साक्षात्कारों का संग्रह है। इसी प्रकार अंग्रेजी में कुलदीप नायर, प्रीतीश नंदी, आर.के. करंजिया, खुशवंत सिंह, जनार्दन ठाकुर, शशि कुमार, चांद, वहराम, निमाई साधन वसु के साक्षात्कार उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी में पहला साक्षात्कार किसे माना जाये इस विषय में विद्वानों में कई मत हैं। डॉ. विश्वनाथ शुक्ल व डॉ. नगेन्द्र ने ‘‘विशाल भारत'' के सितम्बर १९३१ के अंक में ‘‘रत्नाकर जी से बातचीत'' को पहला साक्षात्कार मानते हुए प्रसिद्ध पत्रकार पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को प्रथम साक्षात्कारकर्ता माना है। डॉ. रामगोपाल सिंह चौहान ने साक्षात्कार संग्रह ‘‘मैं इनसे मिला'' (१९५२) के लेखक डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश' को इस विधा का प्रथम पुरुष माना है। डॉ. पंकज ने अपने शोध के आधार पर संगीतज्ञ पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर से लिये साक्षात्कार ‘‘संगीत की धुनः एक संवाद'' को हिन्दी का पहला साक्षात्कार माना है जो ‘समालोचना' में छपा था। इसके रचियता पं. चन्द्रधर शर्मा ‘‘गुलेरी'' को प्रथम साक्षातकर्ता माना है।
हिन्दी में साक्षात्कारों की कई किताबें छपी हैं जो साहित्य का सरमाया हैं। १९६२ में विश्व का सबसे बड़ा साक्षात्कार ‘‘समय और हम'' डिमाई आकार में ६४८ पृष्ठों में प्रकाशित हुआ जो वीरेन्द्र कुमार मिश्र ने श्री जैनेन्द्र कुमार से लिया था। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी, पं. श्रीराम शर्मा के लिये कई साक्षात्कार ‘‘साधना'' के प्रवेशांक (मार्च-अप्रैल, १९४१) में छापे थे। डॉ. पदम सिंह शर्मा कमलेश ने वरिष्ठ साहित्यकारों से साक्षात्कार कर इस विधा को निश्चित स्वरूप प्रदान किया। कैलाश कल्पित ने इसी परंपरा में ‘‘साहित्य के साथी'' (१९५७) साहित्य साधिकाएं (१९६२) साहित्यकारों के संघ (१९८७) साक्षात्कार संग्रह रचे।
हिन्दी के काल्पनिक साक्षात्कारों में ‘‘एंटव चेखव एक इंटरव्यू'', १९५५ में राजेन्द्र यादव ने रचा। शरद देवड़ा की पुस्तक में अनेक लेखिकाओं के काल्पनिक साक्षात्कार मिलते हैं। गोपाल प्रसाद व्यास की पुस्तक ‘‘हलो-हलो'' में काल्पनिक हास्य-व्यंग्यात्मक इंटरव्यू हैं।
वास्तविक साक्षात्कारों में ‘‘हिन्दी कहानियां और फैशन'' (१९६४) में डॉ. सुरेश सिन्हा की उपेन्द्रनाथ अश्क से बातचीत है। ‘‘प्रस्तुत प्रश्न'' में हरदयाल मौजी, गजानन पोतदार, डॉ. प्रभाकर माचवे की कथाकर जैनेन्द्र कुमार से वार्तालाप है। विष्णु प्रभाकर, यशपाल जैन की किताबों में देशी-विदेशी व्यक्तियों के इंटरव्यू हैं। डॉ. रणवीर रांग्रा के साक्षात्कार संग्रह ‘सृजन की मनोभूमि', (१९६८) ‘साहित्यिक साक्षात्कार' (१९७८) अक्षय कुमार जैन के संग्रह ‘याद रही मुलाकातें' ‘शिखरों की छांह' में इस दिशा में उल्लेखनीय है। डॉ. विष्णुकांत शास्त्रीका साक्षात्कार संग्रह ‘‘बंगलादेश के संदर्भ में'' ‘शार्टकट की संस्कृति', (केशवचन्द्र शर्मा), ‘अंतरंग' (१९८१) श्री कन्हैयालाल नंदन, ‘अपरोक्ष' (अज्ञेय), ‘सांच समझ' (१९८५-श्रीकांत जोशी), ‘कथन-उपकथन' (महेश दर्पण) ‘मैं इनसे मिली' (आशारानी), ‘परिप्रश्न' (अश्विनी) ‘जिज्ञासाएं मेरी समाधान बच्चन के' (डॉ. कमल किशोर गोयनका) ‘साक्षात्कार' (जगदीश), ‘मुलाकातें' (रतिलाल शाहीन), ‘साक्षात्कार' (कर्ण सिंह), चिरस्मरणीय भेंटवार्ताएं (संपादक-डॉ. विष्णु पंकज) हिन्दी की प्रमुख पुस्तकें हैं।
साक्षात्कार का बढ़ता प्रभाव
मौजूदा दौर में मीडिया के विकास के कारण साक्षात्कार का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। जैसाकि हम पहले कह चुके हैं कि आज प्रिन्ट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, समाचारों के संकलन तथ्यों या किसी बचान की पुष्टि, समाचारों को रोचक व प्रामाणिक बनाने व स्थानीय रंग देने के लिए साक्षात्कार सशक्त माध्यम है। किसी विषय में मत संग्रह, समस्या विवेचन व दिलचस्प टिप्पणियों के लिए भी साक्षात्कार की जरूरत रहती है।
मीडिया में राजनेता, सरकारी अधिकारी, संगठनों के उच्च पदाधिकारी किसी क्षेत्र के ख्याति प्राप्त लोग यथा साहित्यकार, संगीतकार, फिल्मकार, खिलाड़ी के संबंध में सूचनाएं, जानकारी, समाचार की पुष्टि, खंडन, विचारों के लिए साक्षात्कार विभिन्न माध्यमों से लिए जाते रहे हैं।
किसी घटना के फलस्वरूप रातोंरात चर्चित व्यक्ति पर उसके करीबी लोग, रिश्तेदार, सगे संबंधी उसके व्यक्तित्व कृतित्व पर प्रकाश डाल सकते हैं। किसी घटना, दुर्घटना, कांड में शामिल लोग या उसके चश्मदीद साक्षी से साक्षात्कार काफी सुराग दे जाते हैं। सरकारी नीतियों निर्णयों का आमजन पर प्रभाव देखने के लिए आम व्यक्तियों से साक्षात्कार होते रहते हैं।
चर्चित अपराध कांड में आजकल मीडिया पर अभियुक्तों के साक्षात्कार भी आने लगे हैं। प्रमोद महाजन हत्या के अभियुक्त प्रवीण महाजन को पुलिस की गाड़ी से बोलते कई चैनलों ने दिखाया। उत्तर प्रदेश में एक हत्याकांड में अभियुक्तों ने चैनल के स्टूडियो में साक्षात्कार देकर आत्मसमर्पण किया।
साक्षात्कार के माध्यम
आज पत्र-पत्रिकाओं तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में जो साक्षात्कार हमारे सामने आ रहे हैं वह विभिन्न माध्यमों से तैयार होते हैं। परंपरागत रूप से मौखिक व लिखित साक्षात्कार तैयार होते रहे हैं। मौखिक साक्षात्कार में किसी व्यक्ति से समय लेकर या आवश्यकता पड़ने पर आकस्मिक रूप से बातचीत कर साक्षात्कार तैयार किया जाता है। समय लेकर निर्धारित स्थान पर भेंटवार्ता में जानने समझने का काफी अवसर मिल जाता है। आकस्मिक रूप से किसी विषय, घटना, प्रसंग, समाचार की पुष्टि व खंडन के लिए मीडियाकर्मी संबंधित व्यक्ति को जहां भी मिले, घेरकर प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं और अपने मतलब की बात निकाल ले जाते हैं। टेलीफोन, वीडियो कान्फ्रेंसिंग सुविधा के माध्यम से दर्शकों के सामने वाले से बात कर लेते हैं। आजकल इंटरनेट चेटिंग के ज+रिये भी साक्षात्कार तुरंत फुरंत सामने आ रहे हैं।
पहले पत्रद्वारा प्रश्नमाला भेजकर साक्षात्कार लिया जाता था, जो अब दूरसंचार माध्यमों के तीव्र विकास के कारण बन्द हो रहा है। यद्यपि पत्रद्वारा लिये गये साक्षात्कार उत्कृष्ट रहे हैं जो सामने वाले के इत्मीनान व लिखने की शैलीगत विशेषताओं व तथ्यों से भरपूर होते हैं।
साक्षात्कार लेने के लिए यदि समय हो तो संबंधित व्यक्ति से दिन, समय और स्थान तय करना बेहतर है। उसके संबंध में जितनी भी सूचनाएं उपलब्ध हों उनका अध्ययन कर लेना चाहिये। दानिश्वर एक्टर टॉम अल्टर से मुलाकात के समय जब मैंने उनके प्रारंभिक जीवन और फिल्मों के विषय में सवाल पूछे तो उन्होंने इंटरनेट पर यह जानकारी प्राप्त करने का सुझाव दिया। उनका कहना था कि जो जानकारी किताबों, पत्रिकाओं, इंटरनेट पर मिल सकती है साक्षात्कर्ता को पहले उसे देखकर आना चाहिये ताकि बाकी समय में दूसरे महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर समय का उपयोग हो सके। कई स्थापित लेखक या कलाकार अपनी किताबों या फिल्मों की सूची बताने में समय गवाना नहीं चाहते।
किसी ज्वलंत इश्यु पर नेताओं, अधिकारियों व एक्टरों को हवाई अड्डों, होटलों के बाहर घेर लिया जाता है, अपने मतलब की बात निकलवाने के लिए आपत्तिजनक ढंग से सवाल पूछे जाते हैं जिससे वह व्यक्ति क्रोधित हो उठता है या कोई जवाब नहीं देकर निकल जाता है। पत्राकारों से हाथापाई, मारपीट के प्रसंग भी हो जाते हैं। इस प्रकार के अपरिपक्व प्रश्नों के कारण पूरा मीडिया जगत्‌ बदनाम होता है। कई बार किसी साक्षात्कार के बाद एकतरफा तथ्य, जो समाचार के अनुरूप हो, दूसरे तथ्यों को अनदेखा कर छाप दिये जाते हैं जिसका खंडन होता है।
साक्षात्कार की कला
साक्षात्कार में व्यक्ति का आत्म सम्मान व निजता की रक्षा भी अहम्‌ प्रश्न है। एक जमाने में बनारसीदास चतुर्वेदी, डॉ. रणवीर रांग्रा, डॉ. पद्म सिंह शर्मा ‘कमलेश', डॉ. सत्येन्द्र आदि का कहना था कि साक्षात्कार उसके पात्रको दिखाकर स्वीकृति ले लेनी चाहिए। यद्यपि अधिकांश साक्षात्कार तैयार करने के बाद उनके पात्राों को दिखाये नहीं जाते मगर उन पर कोई विवाद नहीं होता। जब साक्षात्कार में किसी व्यक्ति के कथन या तथ्य तोड़-मरोड़कर समाचारों या अन्य रूप में परोस दिये जाते हैं जो जलती आग में घी का काम करते हैं तो नेता अक्सर प्रेस पर तोड़-मरोड़कर छापने का आरोप लगाते हैं या अपनी बात से साफ मुकर जाने में भला समझते हैं। इससे संबंधित व्यक्ति के साथ प्रकाशित कथन की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है।
साक्षात्कार लेने वाले की जिज्ञासा, बोलने की शक्ति, भाषा पर अधिकार, बातें निकालने की कला, पात्रको सुनने का धैर्य, तटस्थता, मनोविज्ञान, नम्रता, लेखन शक्ति, बदलती परिस्थितियों के अनुरूप बातचीत को मोड़ देने की कला, व्यवहार कुशलता एक अच्छे साक्षात्कार को तैयार करने में सहायक होती है। प्रिन्ट मीडिया व टेलिविजन चैनलों में ऐसे पत्रकार सफल साबित हुए। प्रिन्ट मीडिया में कलमबद्ध करने वाले को बेशक शीघ्र लिपि का ज्ञान न हो मगर वाक्यांश, घटनाएं, तिथियां, स्थान, रचनाओं की सूची, सिद्धान्त, वाक्य, व्यक्ति के मनोभाव जो भी लिखना चाहे सहज रूप से अंकित कर निष्पक्षता से उसे ढालना होता है ‘‘ऑफ दि रिकार्ड'' को छोड़ना ही बेहतर है।
साक्षात्कार में सामने वाले के सम्मान की रक्षा व अभिव्यक्ति को पूरा महत्त्व मिलना एक जरूरत है चाहे वह किसी भी हैसियत का क्यों न हो। व्यक्तित्व, परिधान, भाषा की कमजोरी, शिक्षा की कमी, गरीबी के कारण उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। उससे काफी महत्त्वपूर्ण सूचनाएं व विचार मिलते हैं। किसी व्यक्ति से साक्षात्कार करते समय घमंड, रूखापन, बात थोपना, वाचालता, कटुता, सुस्ती से परहेज करने वाले पत्रकारों ने सामने वाले के ऐसे दुर्गुणों को सहन करते हुए अच्छे साक्षात्कार प्रस्तुत करने में सफलता पायी है। कई बार पात्र प्रश्नों को टाल जाते हैं या छिपाते हैं तो घुमा-फिराकर खूबसूरती से वह बात सामने ले आते हैं।
शोले उगलते साक्षात्कारों का प्रिंट मीडिया व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चलन है। साधारण बातचीत से कोई धमाकेदार शीर्षक नहीं बन पाता, इसलिये धमाकेदार बातचीत कर उसके वाक्यांशों को प्रमुखता से फोटो के साथ प्रकाशित किया जाता है। टी.वी. रेडियो पर साक्षात्कार में संबंधित ध्वनियों व चित्र तथा फाईल चित्रों से सजाये जाते हैं। फिल्मी कलाकार या व्यक्ति का साक्षात्कार हो तो उसके संवाद गीत दिखाने का मौका भी मिल जाता है। कुल मिलाकर प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सभी में साक्षात्कार की धूम मची है।

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हमारे समय में ‘नचिकेता का साहस'

दिनेश श्रीनेत
साहित्य में साक्षात्कार की परंपरा को अगर हम तलाशना शुरू करें तो इसका आरंभ प्राचीनकाल से ही दिखाई देने लगता है। साक्षात्कार अपने प्राचीनतम रूप में दो लोगों के बीच संवाद के रूप में देखा जा सकता है। आमतौर पर इस संवाद का इस्तेमाल ज्ञान मीमांसा के लिए होता था। प्राचीन ग्रीक दर्शन से लेकर भारतीय पौराणिक साहित्य तक में इसे देखा जा सकता है। प्राचीनकाल में इस तरह के संवाद के कई रूप आज भी मौजूद हैं। प्लेटो की एक पूरी किताब ही सुकरात से किए गए सवालों पर आधारित है। इसी तरह से ‘कठोपनिषद्' में यम-नचिकेता के संवाद में जीवन-मृत्यु से संबंधित कई प्रश्नों को टटोला गया है, जहां नचिकेता पूछता है, ‘हे यमराज! एक सीमा दो, एक नियम दो - इस अराजक अंधकार को। अवसर दो कि पूछ सकूं साक्षातकाल से, क्या है जीवन? क्या है मृत्यु? क्या है अमरत्व?' भारत में पंचतंत्रभी प्रश्नोत्तर शैली का इस्तेमाल करते हुए कथा को आगे बढ़ाता है। यहां हर कहानी एक प्रश्न को जन्म देती है और हर प्रश्न के जवाब में ही एक दूसरी कहानी की शुरुआत होती है। यहां तक कि बाद की ‘बेताल पच्चीसी', ‘सिंहासन बत्तीसी' और ‘कथा सरित्सागर' में भी संवाद अहम्‌ है और कथा उसके माध्यम से आगे बढ़ती है। आधुनिक दार्शनिकों ने भी साक्षात्कार की विधा को एक ठोस आयाम दिया है। बर्कले जैसे दार्शनिकों की भी पूरी एक किताब साक्षात्कार शैली में है। इतिहासकार अर्नाल्ड टायनबी तथा दार्शनिक ज्यां पॉल सात्रके साक्षात्कार भी काफी लोकप्रिय रहे हैं। इन सबके अलावा भारतीय दर्शन की सबसे लोकप्रिय किताब ‘गीता' से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है, जहां पूरी ‘गीता' कुछ और नहीं सिर्फ कृष्ण और अर्जुन के बीच संवाद है।
प्रिंट मीडिया के विकास ने इसे एक दूसरा आयाम दिया। इसने साक्षात्कार को दुनिया की चर्चित हस्तियों को जानने-समझने, उनकी जवाबदेही तय करने और कई बार उन्हें कटघरे में खड़ा करने वाली विधा में बदल दिया। पश्चिमी देशों की कुछ पत्रिकाएं सिर्फ अपने साक्षात्कारों की बदौलत ही लोकप्रिय हैं। इसके विपरीत पश्चिम के मुकाबले भारत में अभी भी इंटरव्यू के मामले में प्रिंट मीडिया काफी पीछे दिखाई देता है। यहां प्रिंट मीडिया का शुरुआती विकास वैचारिक तथा अवधारणात्मक किस्म के आलेखों से हुआ। इसमें इंटरव्यू जैसे ‘लाइव' माध्यम की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। ‘दिनमान' और ‘धर्मयुग' तक में अधिक जोर वैचारिक तथा विश्लेषणात्मक लेखों का था। शायद यही वजह रही है कि साहित्यिक विधा के रूप में भी इसे अधिक गंभीरता से नहीं लिया गया और आज भी हमें जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, निराला या महादेवी के बहुत अच्छे इंटरव्यू नहीं मिलते। यदि कभी ऐसे साक्षात्कार लिए भी गए हों तो कम से कम वे आज शोधार्थियों के लिए सुलभ नहीं हैं। संभवतः ‘रविवार' ने जब घटनाओं की सीधे रिपोर्टिंग करके पत्रकारिता के एक नए तेवर से हिन्दी के पाठकों को अवगत कराया तो साक्षात्कार की अहमियत खुद-ब-खुद सामने आ गई। इंटरव्यू ने पत्रकारिता को तेवर देने के साथ-साथ यथातथ्यता और प्रामाणिकता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
हिंदी में साक्षात्कार की विधा का सही विकास इसके बाद से ही देखने को मिलता है। साक्षात्कार को एक सुंदर और साहित्यिक रूप पद्मा सचदेव ने दिया और व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत किया अशोक वाजपेई ने। पद्मा सचदेव ने अपने नितांत आत्मीय स्वर में की गई बातचीत से लोगों की चिरपरिचित शख्सियत को ही एक नए रूप में सामने रखा। डोगरी में कविताएं लिखने वाली पद्मा को हिंदी में बड़ी पहचान उनके इन साक्षात्कारों की वजह से ही मिली। कृष्णा सोबती ने भी ‘हम हशमत' में कई दिलचस्प साक्षात्कार लिए - इस पुस्तक में उनके साक्षात्कार आमतौर से सिर्फ बातचीत न बनकर लेखिका की सामने वाले से उसके पूरे वातावरण के बीच एक ‘मुठभेड़' बनता था। अपने शुरुआती दौर में ‘पूर्वग्रह' ने भी साक्षात्कार विधा को काफी संजीदगी से लिया। अशोक वाजपेई ने उसमें कई महत्त्वपूर्ण साक्षात्कार प्रकाशित किए। इस साक्षात्कारों का आयोजन भी आमतौर पर ‘पूर्वग्रह' ही करता था। उन्होंने हिंदी में साक्षात्कार विधा को जकड़बंदी से निकालकर उसे साहित्यकारों के अलावा चित्रकारों, संगीतकारों तथा फिल्मकारों पर भी एकाग्र किया। उन्होंने अपने संपादन में ‘पूर्वग्रह' के साक्षात्कार की दो किताबें भी निकालीं - ‘साहित्य विनोद' और ‘कला विनोद'। यह पूर्वग्रह की शैली थी कि किसी एक रचनाकार या कलाकार का दो या तीन लोग मिलकर इंटरव्यू करते थे। बाद के दौर में ‘बहुवचन' और ‘समास' जैसी पत्रिकाओं ने भी कई महत्त्वपूर्ण इंटरव्यू प्रकाशित किए, जिनमें आशीष नंदी जैसे समाजशास्त्री, कृष्ण कुमार जैसे शिक्षाशास्त्री, ज्ञानेंद्र पांडेय जैसे इतिहासकार और मणि कौल जैसे फिल्म निर्देशक भी शामिल थे। इन दिनों साक्षात्कार को एक गंभीर रचनात्मक आयोजन में बदलने वाली एक और अहम्‌ पत्रिका ‘पहल' है। ‘उद्भावना' पत्रिका ने तो सिनेमा पर गंभीर विमर्श को भी साक्षात्कार शैली में प्रस्तुत कर दिया।
हिंदी पत्रकारिता ने साक्षात्कार की विधा को देर से पहचाना और बाद में उसमें तेजी से परिवर्तन भी कर डाले। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के असर से प्रिंट मीडिया में भी इंटरव्यू का ताप और तेवर तय हुआ। लंबे साक्षात्कारों और सोच-विचारकर किए गए सवालों की जगह छोटे इंटरव्यू और पहले से तय प्रश्न दिखने लगे। फिल्मी हस्तियों, मॉडल, खिलाड़ी तथा अन्य ग्लैमर वर्ल्ड की हस्तियों के छोटे साक्षात्कार प्रकाशित होने लगे। इनके सवाल बहुत छोटे और तात्कालिक होते हैं। यह भी दरअसल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चलते-फिरते इंटरव्यू करने की शैली का ही एक रूप है। जहां बहुत गंभीर या ठहर कर सोचने-विचारने वाले सवालों की गुंजाइश नहीं रहती। ऐसी स्थिति में ‘आपकी फेवरेट डिश' या फिर ‘लाइफ में सबसे इंपार्टेंट' जैसे सवाल ही रह जाते हैं। यानी सवाल ऐसे हों कि सिर्फ एक लाइन में जवाब दिया जा सके। यह शैली बाद के दौर में हिंदी वालों ने खूब और बिना सोचे-समझे इस्तेमाल की और अचरज की बात नहीं कि जावेद अख्तर, गुलजार और एम.एफ. हुसैन से भी इस तरह के इंटरव्यू मिल जाएं। अधकचरे किस्म के क्षेत्रीय पत्रकारों ने कामकाज संभालने वाले डी.एम. और ‘मिस शाहजहांपुर' से भी ऐसे सवाल पूछने शुरू कर दिए। कुल मिलाकर संवाद से विमर्श को खत्म कर दिया गया।
इससे उलट इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने ‘संवाद' के साथ दिलचस्प प्रयोग किए। प्रीतीश नंदी, सिमी ग्रेवाल, प्रभु चावला, विनोद दुआ और पूजा बेदी ने इंटरव्यू की शैली को ज्यादा आक्रामक बनाया। सामने वाले को निरुत्तर कर देने की हद तक चुभते सवाल पूछे और टेलीविजन पर लाखों दर्शकों ने जानी-मानी हस्तियों को इन्हीं सवालों के सामने भावुक होते और आंसू पोंछते भी देखा। इसी दौर के कुछ बेहतरीन कार्यक्रमों में साक्षात्कार को ज्+यादा से ज्यादा अनौपचारिक बनाया गया और राजनीतिक या ग्लैमर वर्ल्ड की हस्तियों को उनके अपने माहौल के बीच रिकॉर्ड किया गया। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस विधा के साथ ज्यादा ‘तोड़फोड़' की। विधा में की गई इस तोड़फोड़ के नतीजे कभी बहुत अच्छे होकर सामने आए तो कभी उबाऊ और कभी एकदम अर्थहीन, लेकिन कुल मिलाकर प्रिंट मीडिया के मुकाबले इसने सृजनात्मकता और उसके तेवर को कायम रखा।
दिलचस्प बात यह है कि दुनिया के स्तर पर प्रिंट मीडिया ने अपनी गंभीरता बरकरार रखी। ‘टाइम' और ‘द इकोनामिस्ट' जैसी पत्रिकाओं ने अपना कलेवर या शैली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से आक्रांत होकर नहीं बदली। नोम चोमस्की, हैरॉल्ड पिंटर, उम्बर्तो इको और गैब्रिएल गार्सिया मारक्वेज जैसे विद्वानों तथा रचनाकारों के पास अभी भी अपनी बात रखने के लिए साक्षात्कार एक बेहतर विकल्प था। यही वजह है कि इनके बहुत अच्छे साक्षात्कार उपलब्ध हैं, जिनमें अपने वक्त की घटनाओं पर उनकी सटीक टिप्पणी तथा विश्लेषणात्मक रुख देखने को मिलता है। इसके विपरीत हम हिंदी तो दूर अपनी भारतीय भाषाओं तक में महाश्वेता देवी, अरुंधति राय, अमिताव घोष या नामवर सिंह के लंबे और गंभीर इंटरव्यू नहीं पाते। लिखे हुए शब्दों का विचार से यह ‘पलायन' अपने-आप में किसी समाजशास्त्रीय विमर्श का दिलचस्प विषय है।
हमेशा से माध्यमों में आए बदलावों से विधागत परिवर्तन हुए हैं और कई बार ‘विधाओं' ने अपनी मौलिकता को बरकरार रखते हुए माध्यमों का आंतरिक ताना-बाना बदला है। इस लिहाज से इंटरनेट की साक्षात्कार विधा में एक अलग भूमिका उभरकर सामने आ रही है। इंटरनेट इस दौर में तेजी से विचारों के ‘दस्तावेजीकरण' तथा उनकी ‘उपलब्धता' सुनिश्चित करने का माध्यम बना है, बेवसाइटों को खंगालें तो लगभग सभी अहम्‌ विचारकों के साक्षात्कार मिल जायेंगे। यहां आमतौर पर बड़े और लंबे इंटरव्यू ही उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं इनमें से बहुत से साक्षात्कारों के वीडियो तथा ऑडियो फारमेट भी उपलब्ध हैं, जिन्हें उसी रूप में देखा या सुना जा सकता है। एडवर्ड सईद, नोम चोमस्की तथा ऐजाज अहमद जैसे विद्वानों के कई महत्त्वपूर्ण इंटरव्यू तथा पूरी-पूरी किताबें इंटरनेट की साइटों पर मौजूद हैं। यह उदाहरण हमें यह भी बताता है कि ‘विचार' किस तरह से माध्यमों में अपना दखल बनाते हैं। समय बदला है मगर अपने ‘समय से संवाद' लगातार जारी है। ‘कठोपनिषद्' में नचिकेता के सवालों के जवाब में यमराज कहते हैं, ‘हे नचिकेता, तूने साहस किया है! बहुत बड़ा साहस! तूने साक्षात्‌ मृत्यु से प्रश्न किया है और वह भी उसी के साम्राज्य में प्रवेश करके। स्वागत है तुम्हारे इस साहस का!' साक्षात्कार अपने सर्वाधिक सार्थक रूप में इसी ‘साहस' से जन्म लेता है। नचिकेता की प्रश्नाकुलता अब ‘साइबर स्पेस' में तैर रही है।

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मेरे पहले राजनीतिक एवं साहित्यिक गुरु डॉ. रामविलास शर्मा : डॉ. शिव कुमार मिश्र

डॉ. सूर्यदीन यादव
आपकी इजाजत हो तो मैं इस साक्षात्कार की शुरुआत कुछ व्यक्तिगत प्रश्नों से करना चाहता हूँ।
पूछिए।
सबसे पहले आप अपने घर-परिवार तथा विद्यार्थी जीवन पर थोड़ा प्रकाश डालें, जैसे कि आपकी शिक्षा कहाँ और किन परिस्थितियों में हुई? आदि।
व्यक्तिगत जीवन और व्यक्तिगत जीवन संघर्षों के बारे में बात करने में मुझे हमेशा बहुत संकोच रहा है। आपने पूछा है, इस कारण केवल एक प्रश्न के अन्तर्गत ही इस बारे में मैं बात करूँगा। मेरे व्यक्तिगत जीवन में ऐसी कोई खास बात नहीं है, जिसको अलग से रेखांकित किया जाए। सामान्य निम्न मध्यम वर्ग के परिवार में जन्म हुआ। माता-पिता, दो बड़े भाई तथा दो छोटी बहनें, संयुक्त परिवार का यही रूप रहा। पिताजी डाकखाने के मुलाजिम थे। आर्थिक विपन्नता भले न हो, सम्पन्नता भी नहीं रही। भाइयों के विवाह हुए और इण्टरमीडिएट की परीक्षा देते ही मेरा अपना विवाह भी हो गया। जब सन्‌ १९५२ में मैंने एम.ए. पास किया, तब तक परिवार 17-18 सदस्यों का हो चुका था। इच्छा थी लखनऊ या इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने की, परन्तु आर्थिक साधन नहीं थे। कानपुर से ही सन्‌ ४६ में मैट्रिक, सन्‌ ४८ में इण्टरमीडिएट, सन्‌ ५० में बी.ए. तथा सन्‌ १९५२ में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर से लेकर एम.ए. तक कानपुर के डी.ए.वी. कालेज का छात्र रहा। १९५३ में एल.एल.बी. की परीक्षा भी वहीं से उत्तीर्ण की। तब तक मैं एक बेटी का पिता बन चुका था। संप्रति-मैं तीन बेटियों का पिता हूँ। तीन बेटियाँ अपने-अपने विषयों में पी-एच.डी. हैं, परन्तु सभी गृहणियाँ हैं। नौकरी किसी ने नहीं की। सब अपने-अपने घर-परिवार में सुखी हैं।
इच्छा थी हिन्दी साहित्य में शोधकार्य करने की। परन्तु यह भी संकल्प था कि शोध या तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में करूँगा या आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी के निर्देशन में, जो उस समय हिन्दी के सबसे ख्यात आचार्य थे। किसी से भी व्यक्तिगत परिचय नहीं था। आर्थिक साधन ऐसे नहीं थे कि बनारस या सागर जाकर शोध कार्य करूँ। दोनों आचार्यों को पत्र लिखता रहता था, परन्तु उत्तर नहीं मिलते थे। सन्‌ १९५२ से ५६ तक का समय दूसरी उधेड़ बुन में बीता।
कानपुर के परेड मार्केट में किताबों की एक प्रसिद्ध दुकान किताब घर के नाम से थी। उसके मालिक मेरे एक दूर के रिश्तेदार थे। वे प्रकाशक भी थे। एम.ए. में अध्ययन के दौरान और उसके बाद भी मेरा अधिक समय उनकी दुकान में ही बीतता था। वे मेरी परेशानी और मेरी इच्छा को जानते थे। उन्होंने मेरे सामने दो-एक छात्रोपयोगी पुस्तकें लिखने का प्रस्ताव किया, ताकि मैं कुछ कमा सकूँ और घर परिवार को सहयोग दे सकूँ। मैंने कुंजियाँ लिखने से साफ इंकार कर दिया। अन्ततः उनकी प्रेरणा से १९५३ में जयशंकर प्रसाद की कामायनी पर ढाई-तीन सौ पृष्ठों की एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी, जिसकी सामग्री का आधार वे नोट्स थे जो मैंने एम.ए. के अध्ययन के दौरान तैयार किये थे। साथ में कामायनी की टीका भी की, जिसका आधार उस समय प्रकाशित श्री विश्वंभर मानव की टीका थी। इसे संयोग कहें या मेरा भाग्य कि पुस्तक का पहला संस्करण एक वर्ष में ही बिक गया। लगभग ६०० रुपये रॉयल्टी के मिले, जो मैंने प्रकाशक के पास जमा कर दिये। सन्‌ १९५४-५५ में एक दूसरी पुस्तक बाबू वृन्दालाल वर्मा के उस समय तक प्रकाशित सारे ऐतिहासिक-सामाजिक उपन्यासों को केन्द्र में रखकर लिखी। यह पुस्तक भी तीन सौ पृष्ठों की थी। इसका पहला संस्करण भी एक वर्ष के भीतर बिक गया। जहाँ तक मेरी जानकारी है, बाबू वृंदावन लाल वर्मा के उपन्यास साहित्य पर हिन्दी में यह पहली पुस्तक थी। इसकी रॉयल्टी भी ६-७ सौ रुपये मिली। अब मेरे पास लगभग डेढ़ हजार रुपये थे। अब मैं बाहर शोध के लिये जा सकता था। पिताजी बहुत उदार मानस के थे। परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्होंने मुझे आश्वस्त किया और मुझे आशीर्वाद दिया। ये दोनों पुस्तकें मैंने उस समय के ख्यात सभी विद्वानों को भेजी थीं, जिनके पत्रभी मिले थे। उन विद्वानों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और आचार्य वाजपेयी जी भी थे। अकस्मात सन्‌ १९५६ में आचार्य वाजपेयी का एक कार्ड मुझे मिला कि मैं उनसे सागर में मिलूँ। मैं तत्काल सागर पहुँचा और उन्होंने मुझे अपने निर्देशन में शोध करने की अनुमति दे दी। दो वर्षों तक अपने कमाये कुछ पैसों के आधार पर शोध कार्य चला। बीच में आचार्य वाजपेयी ने एक प्रोजेक्ट के तहत कुछ आर्थिक सहायता दी और मेरा कार्य निर्विहन पूरा हो गया। मैं आचार्य वाजपेयी जी का स्नेह भाजन तो बना ही, सन्‌ १९५९ में सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मेरी नियुक्ति भी हो गई। यह है मेरे इस समय तक के जीवन की संक्षिप्त कथा। जैसा मैंने कहा कि इसमें ऐसा कुछ भी खास नहीं, जो मेरे जैसे तमाम दूसरे लोगों के जीवन में घटा हो।
मार्क्सवाद की ओर झुकाव कब और कैसे हुआ?
कानपुर के जिस मुहल्ले में मेरा बचपन बीता, मैंने बचपन से ही मजदूरों के जुलूसों का एक सिलसिला देखा। कानपुर एक औद्योगिक शहर है। मजदूर हड़ताल करते, जुलूस निकालते, बड़ी-बड़ी सभाएँ होतीं, मेरे मन पर शुरुआती दौर में इन सब बातों का सघन प्रभाव रहा। सन्‌ १९६४ में मैट्रिक पास कर डी.ए.वी. कालेज में इण्टर का छात्र बना और उसी समय छात्रों की वामपंथी राजनीति से जुड़ गया। कालेज में छात्रों के तीन संगठन थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, कांग्रेस की स्टूडेंट्स, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी का आल इण्डिया स्टूडेंट्स फेडरेशन। कालेज में इंटर से एम.ए. तक सबसे मेधावी छात्रों का संबंध फेडरेशन से था। मेरा संपर्क भी फेडरेशन के छात्रनेताओं से हुआ और मैं उनके गोल में शामिल हो गया। बीच-बीच में परेड स्थित कामरेड पार्टी के दफ्तर के चक्कर भी लगाने लगे। इसी बीच यशपाल के उपन्यास और राहुल सांकृत्यायन की किताबें भी पढ़ीं, जिनके जरिये भी मार्क्सवाद को जाना समझा। जैसे-जैसे आगे की कक्षाओं में बढ़ता गया, अंग्रेजी में प्रकाशित मार्क्सवादी साहित्य की पुस्तकें भी पढ़ीं। जब एम.ए. में था तभी सन्‌ १९५२ में प्रगतिशील लेखक संघ के किसी कार्यक्रम में डॉ. रामविलास शर्मा कानपुर आये थे। कानपुर के प्रगतिशील साथियों ने उनसे मेरा परिचय कराया और उनका स्नेह भी मुझे मिला।
सन्‌ १९५२ से ५६ तक जब मैं सड़कों पर था, प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया और इसी दौर में मार्क्सवाद का जितना अध्ययन कर सकता था किया। डॉ. रामविलास शर्मा से पत्राचार भी इसी समय से प्रारम्भ हुआ। वे मेरे राजनीति और साहित्य के पहले गुरु हैं। सन्‌ १९५३ में कानपुर की स्टूडेन्ट फेडरेशन की इकाई का अध्यक्ष भी रहा और प्रगतिशील लेखक संघ में मेरी सक्रियता तो थी ही। कानपुर के उस समय के ख्यात प्रगतिशील लेखकों और विचारकों से घनिष्ट संबंध भी बने, जिनमें श्री शिव वर्मा और शीलजी मुख्य हैं।
आपके गुरुजी, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी भिन्न विचारों और संस्कारों के व्यक्ति थे। फिर भी आप उनके प्रियपात्रकैसे बन गये। उनके साथ आपने कैसे निभाया।
आचार्य वाजपेयी के पास मैं सन्‌ १९५६ के अंत में गया और जैसा मैं कह चुका हूँ कि इससे पहले सन्‌ १९५२ में रामविलास शर्मा जी से मेरी भेंट हो चुकी थी। पत्राचार भी शुरू हो गया था और उनसे दो-तीन बार मिल भी चुका था। आचार्य वाजपेयी से मिलने सागर जाने से पहले मैं डॉ. रामविलास शर्मा से मिला भी था और उन्हें अपने सागर जाने की बात बता दी थी। वे आचार्य वाजपेयी के गाँव-घर के पास के रहने वाले थे ही, उनके कर्म विचारों और उनके साहित्य से भली-भाँति परिचित भी थे तथा उनके मन में आचार्य वाजपेयी के प्रति आदर का भाव भी था। उन्होंने मुझे आश्वत किया था कि जनतांत्रिक सोच के आचार्य वाजपेयी के निर्देशन में निर्विहन अपना शोधकार्य कर सकूँगा।
लगभग एक वर्ष तक मैंने अपनी वैचारिक आस्थाओं और रामविलास जी से अपने संबंधों के बारे में नहीं बताया। जब मुझे विश्वास हो गया कि मैं स्नेह भाजन बन चुका हूँ, मैंने उन्हें सब कुछ बताया। उन्होंने मेरी बातें ध्यान से सुनी और मुझे अपने अन्तर्गत शोध की अनुमति दे दी। उन्होंने मुझसे कहा : डॉ. रामविलास शर्मा मेरे मित्र हैं और साहित्य और जीवन में प्रगतिशील विचारों का मैं हमेशा समर्थक रहा हूँ। प्रगतिशील लेखक संघ की काशी इकाई का अध्यक्ष भी मैं रहा हूँ और मार्क्सवाद की शक्ति तथा सीमाओं, दोनों का मुझे बोध है। तुम्हें जो विषय दिया गया है, उस पर कार्य करो और सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दो।''
सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मेरी नियुक्ति तो हुई ही। जब तक आचार्य वाजपेयी जीवित रहे, मैं उनकी सघन आत्मीयता के दायरे में रहा। शोध के दौरान उन्होंने कभी भी मुझे विचार के स्तर पर दबाने की कोशिश नहीं की। हाँ, मेरे अतिवादी आग्रहों को जब-तब संतुलित जरूर किया। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है। कुछेक गहन संकटों के क्षण में, मसलन सन्‌ १९६२ में चीनी आक्रमण के समय जब कम्युनिस्टों की व्यापक धरपकड़ हो रही थी, उन्होंने एक रात मुझे बुलाया और कहा कि उन्हें स्थानीय खुफिया विभाग से सूचना मिली है कि किसी ने मेरे बारे में कुछ लिखकर भेजा है। मेरे परिवार की देखरेख की पूरी जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने मुझे १५ दिनों के लिए कहीं बाहर चले जाने जाने के लिए कहा। बाद में उनका संदेश पाकर मैं सागर लौटा, तब तक संकट के बादल छट चुके थे। उन्होंने मुझसे यहाँ तक कहा था कि यदि तुम गिरफ्तार हो जाते हो, तो मैं अदालत में तुम्हारी जमानत लूँगा। ऐसे उदार गुरु को क्या कोई कभी भूल सकता है।
आचार्य वाजपेयी निश्चय ही रोमानी मनोभूमि के समीक्षक विचारक थे। कई मुद्दों पर मार्क्सवाद से उनकी असहमति थी। परंतु वे निहायत जनतांत्रिक सोच के व्यक्ति थे। मेरी उनसे अनेक बार लंबी बहसें हुईं। तब मेरे साथ मेरे मार्क्सवादी साथी चंद्रभूषण तिवारी भी हुआ करते थे, जो आचार्य वाजपेयी के ही निर्देशन में शोधकार्य कर रहे थे। जो स्नेह आचार्य वाजपेयी का मुझे मिला और जो उनके बारे में मेरे अनुभव हैं, वही चन्द्रभूषण तिवारी के भी थे। आचार्य वाजपेयी की मनोभूमि पर उस समय हम लोग छाए हुए थे बहसें होती थीं, वैसी ही, जैसी गुरु-शिष्य के बीच में होती हैं या होनी चाहिए। आचार्य वाजपेयी के नियंत्राण पर डॉ. रामविलास शर्मा, नागार्जुन, राहुल जी, केदारनाथ अग्रवाल सभी सागर आये। मेरा मानना है कि कुल मिलाकर वाजपेयी के विचार मार्क्सवाद-विरोधी नहीं हैं। यद्यपि जैसा मैंने कहा कि कुछ मुद्दों पर उनकी असहमतियाँ जरूर रहीं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उनके बारे में मुझसे जो कुछ भी कहा था, वह एकदम सत्य था। उन्होंने मुझसे एक बार यह भी कहा था कि तुम लोग वाजपेयी जी को मार्क्सवादी बनाने का उपक्रम न करना। वे जैसे हैं, उसी रूप में हमारे मद्दगार हैं। उनके विचारों का इस्तेमाल करो। रामविलास जी की सलाह को मैंने बराबर ध्यान में रखा और आचार्य वाजपेयी के साथ अंत तक जुड़ा रहा और आज भी मेरे मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा है। आज मैं जो कुछ हूँ, मेरे निर्माण में उनका बहुत योगदान है।
आप मार्क्सवादी हैं, धर्म को आप किस रूप में लेते हैं?
मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक विचारधारा है, जिसका संबंध दर्शन की भौतिकवादी शाखा से है। मार्क्स ने इस दार्शनिक भौतिकवाद को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का रूप दिया। दर्शन की यह भौतिकवादी शाखा संसार के कर्ता या कारण के रूप में किसी भी परम सत्ता को स्वीकार नहीं करती। इसके लिए प्रकृति ही एक मात्र सत्य है, जो अनादि और अनंत है। जहाँ तक धर्म का सवाल है, धर्म एक मिथ्या चेतना है, जिसे मार्क्स ने जनता के लिए अफीम कहा है। मार्क्स की इस उक्ति को बहुत विज्ञापित किया गया है, जबकि अपनी व्याख्या में मार्क्स ने धर्म के बारे में कुछ और बातें भी कहीं हैं। वस्तुतः धर्म जब संस्थागत बनता है, उसका मतवाद खड़ा होता है, उसमें तरह-तरह के कर्मकांड जुड़ते हैं। मार्क्सवादी धर्म से जुड़े इन पाखंडों और मिथ्या विचारों का विरोध करते हैं। धर्म अपने बुनियादी रूप में कर्तव्य का, ईमानदार, मेहनत और मशक्कत की कमाई का पर्याय है। संतों ने धर्म के इसी रूप को माना और ग्रहण किया है। उससे जुड़े पाखंडों की धज्जियाँ उड़ाई हैं। धर्म के नाम पर मनुष्यता का जितना रक्त बहा है, उतना युद्धों और महायुद्धों में भी नहीं बहा है। धर्म के बारे में मेरा यही अभिमत है कि उसे कर्तव्य और सेवा के रूप में स्वीकार किया जाए।
लोगों में एक यह भी धारणा है कि मार्क्सवाद परंपरा का विरोधी है।
मार्क्सवाद के बारे में लोगों की यह धारणा निहायत भ्रांत धारणा है। यद्यपि यह भी सच है कि हिन्दी के कुछेक मार्क्सवादी माने जाने वाले रचनाकारों और विचारकों ने इस तरह की भ्रांत धारणा के लिए उन्हें मौका दिया है। मार्क्सवाद से परिचित, विशेषकर मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन आदि के लेखन को जिन्होंने सही ढंग से पढ़ा है वे स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे कि परंपरा के बारे में मार्क्सवाद पर लगाया गया यह आरोप एकदम गलत है। मार्क्सवादी विचारकों ने यह कहा है कि परंपरा में जो कुछ प्राणवान और ऊर्जामय होता है, वह आगे के विकास का हिस्सा बनता है, और जो निष्प्राण और रुढ़िबद्ध होता है, वह अपने समय में ही खप जाता है। परंपरा के जीवंत तत्त्वों के विकास का हिस्सा बनाने और उससे प्रेरणा लेने की बात ही सही मार्क्सवादी दृष्टि है। मार्क्स, एंगेल्स एवं लेनिन का लेखन स्वतः इसका प्रमाण है। हिन्दी में शुरुआती दौर में कुछ प्रगतिशीलों के लेखन से इस प्रकार की ग्रंथियाँ जरूर फैलीं, परंतु बाद में स्थिति सामान्य हो गई। डॉ. रामविलास शर्मा की किताब का नाम ही परंपरा का मूल्यांकन शीर्षक से है, जिसमें उन्होंने कहा है कि बिना परंपरा को जाने हम विकास की दिशाएँ निर्धारित नहीं कर सकते हैं। हाँ, मार्क्सवाद का यह आग्रह जरूर है कि परंपरा के प्रति हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो, विवेकपूर्ण हो। परंपरा की पूजा नहीं, उसका विवेक परक अध्ययन होना चाहिए और इस विवेक के तहत उसके संप्राण तत्त्वों की खोज करते हुए आगे के विकास में उनका इस्तेमाल होना चाहिए।
प्रगतिशील विचारधारा के होते हुए भी आपने भक्तिकाल के पक्ष में बहुत कुछ लिखा है; जबकि कई बड़े प्रगतिशील विद्वानों ने भक्तिकाल को खारिज करने की हद तक उसकी आलोचना की है।
डॉ. रामविलास शर्मा की अपने समकालीनों - खासतौर से शिवदान सिंह चौहान, यशपाल, भदंत आनंद कौशल्यायन, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन आदि से जो वैचारिक भिड़ंत हुई और जिसे लेकर कुछ लोग आज भी डॉ. रामविलास शर्मा को दोषी करार दे रहे हैं, उसके मूल में भक्तिकाल-विशेषकर गोस्वामी तुलसीदास को लेकर व्यक्त किये गये उपर्युक्त रचनाकारों - विचारकों और समीक्षकों के विचार ही हैं। परंपरा के वैज्ञानिक मूल्यांकन की बात मैंने ऊपर की है; इन लोगों के इन विचारों में उसी का निषेध है। के. दामोदरन ने अपनी पुस्तक में स्पष्टतः भक्ति आन्दोलन पर लिखते हुए उसके सकारात्मक पहलुओं को जिस तरह विशद् किया है उससे बात साफ हो जानी चाहिए। मेरे अध्ययन का क्षेत्र आधुनिक साहित्य रहा है। भक्ति काल और भक्ति कवियों की और मेरी समज्ञ परंपरा के बारे में मार्क्सवादी विचारों के आलोक में ही हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि मध्यकाल में अनेक ज्वलंत सामाजिक विषयों पर भक्ति के आवरण में ही उसके रचनाकारों और विचारकों ने विचार किया है, जिन्हें हमें संजीदगी से पढ़ना चाहिए। भक्तिकालीन रचनाओं और रचनाकारों में विचारगत अन्तर्विरोध हैं; परंतु उनके साहित्य में ऐसा भी बहुत कुछ है, जो सामंती मूल्यों के विरोध में है, जनता के पक्ष में है और जो हमारे आज के रचनाकारों के लिए भी एक मिसाल है। यदि हम परंपरा को सही रूप से मार्क्सवादी विचारों के अनुरूप समझते हैं तो हमें निश्चय ही ऐसा बहुत कुछ प्राप्त होता है, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणा है; हमारी विरासत है।
आप अपने तमाम लेखन में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रति बहुत उदार दिखाई पड़ते हैं। इस विषय पर कुछ कहिए।
मेरी दृष्टि में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पहले भी आधुनिक हिन्दी समीक्षा की वृहद्त्रायी के पहले व्यक्ति रहे हैं और आज भी हैं। उनके समीक्षात्मक अवदान से जो लोग ठीक से परिचित हैं, वे इस बात की ताईद करेंगे कि आचार्य शुक्ल ने अपने लेखन से हिन्दी समीक्षा को ऐसा सुदृढ़ वैचारिक आधार प्रदान किया है, सिद्धान्त और व्यवहार दोनों आयामों पर कि उसकी मिसाल नहीं है। आचार्य शुक्ल के विचार बड़ी दूर तक साहित्य और कला के विषय में मार्क्सवादी विचारों की संगति में हैं। यद्यपि आचार्य शुक्ल को मैं न तो मार्क्सवाद के दायरे में लाने का पक्षधर हूँ और न दार्शनिक भौतिकवाद के दायरे में। वे जैसे हैं, और जो हैं, हमारे लिए इसी रूप में बेहद उपयोगी हैं। कविता की उनकी समझ और उसके बारे में उनके विचारों और व्यवहारिक विश्लेषण का मैं दूर तक कायल हूँ। उनका बुद्धिवाद उनकी लोकवादी आस्था उनके अध्ययन का फलक मुझे बराबर उनकी ओर आकर्षित करता रहा है। अब तो उनकी पुस्तक चिन्तामणि के चार भाग सामने आ चुके हैं और परवर्ती जागीर में ऐसी कुछ नयी सामग्री संकलित है, जो उन तमाम भ्रांतियों का निराकरण करती है, जिन्हें उनके आरंभिक लेखन में इंगित करते हुए उन पर वर्णवादी, ब्राह्मणवादी होने जैसे आरोप लगाए गए हैं, और उन्हें साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि का पोषक बताया गया है।
वस्तुतः शुक्ल जी जीवन भर विचारगत आत्म-संघर्ष से गुजरे हैं और आगे चलकर उन्होंने स्वयं अपने पिछले तमाम विचारों को छोड़ा है। जरूरत उनके निहायत वस्तुनिष्ठ और पूर्वाग्रह रहित अध्ययन की है। रहस्यवाद, कलावाद, रीतिवाद आदि का उनका विरोध निहायत तर्क संगत एवं वैज्ञानिक है। जहाँ तक मैं समझता हूँ हमारी समीक्षा में विचारों के स्तर पर उनकी वही भूमिका और उनका वही महत्त्व है, जो रूस में मार्क्सवाद के आने के पहले बेलिन्सकी चेर्नीशेव्स्की, दोब्रोल्यूबोव जैसे विचारकों का था। वे हमारी विरासत हैं और रहेंगे। उनकी विचारगत असंगतियाँ होंगी और हैं; परंतु वे हमारे वैचारिक सरोकारों के अनेक आयामों पर प्रेरणा-स्रोत हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा से आप खुद को किन रूपों में प्रभावित मानते हैं।
मैं बता चुका हूँ कि डॉ. रामविलास शर्मा से मैं १९५२ से परिचित हूँ। तब से उनके जीवन पर्यन्त मेरे और उनके संबंध बने रहे। जिस समय मैं कानपुर में सन्‌ १९५२ से ५६ के बीच, प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों में शरीक था, प्रगतिशील समीक्षक के रूप में रामविलासजी शीर्ष पर थे। मैं जब भी उन्हें पढ़ता, उनकी विवेचन शैली और तर्कों से बेहद प्रभावित होता। कालान्तर में उनके विचारों और उनकी समीक्षा की कुछ सीमाएँ भी मेरे सामने स्पष्ट होती गयीं, परन्तु कुल मिलाकर उनके वैदुष्य का प्रभाव मेरे ऊपर बना रहा। मैंने उनके अतिवादी आग्रहों तथा उनकी दीनार सीमाओं से अपने को बचाते हुए, उनमें जो कुछ ठोस और सकारात्मक था, उससे अपना संबंध जोड़ा, उनका स्नेह-भाजन बनकर मैंने उनसे लंबी बहसें भी की। उनके जीवनकाल में उनके कुछ विचारों से असहमत होते हुए मैंने लिखा भी और उनसे बातें भी कीं। मेरे बहुत से तर्कों को उन्होंने माना भी। बावजूद इसके मैंने उनकी समीक्षा से और उनके सानिध्य से बहुत कुछ पाया है। आचार्य वाजपेयी के साथ वे भी मेरी मनोभूमि में हमेशा गुरु के रूप में विद्यमान रहे। स्पष्ट और पारदर्शी भाषा में जटिल से जटिल विषय को सरल बनाकर लिखने की तमीज मैंने उनसे ही सीखी।
मुक्तिबोध के बारे में आपका जो नजरिया है, उसे थोड़ा स्पष्ट करें।
जब मैं सागर में शोध कार्य कर रहा था, मुक्तिबोध सागर विश्वविद्यालय की सेनेट के सदस्य थे, जिसकी बैठकों में वे प्रतिवर्ष आते थे। सागर के कुछ प्रबुद्ध छात्र, जिनमें आज के ख्यात अशोक वाजपेयी भी हैं, उनसे अंतरंग रूप से जुड़े हुए थे। मैं आचार्य वाजपेयी का शोध छात्र था और आचार्य वाजपेयी उस समय नयी कविता-विरोधी के रूप में विज्ञापित किये जा चुके थे। मुक्तिबोध जब भी आते, कोई न कोई विचार गोष्ठी जरूर होती, जिसमें मैं भी शामिल होता। मेरी मुक्तिबोध जी से अंतरंगता नहीं बढ़ सकी; फिर भी मैंने जितना संभव था, मुक्तिबोध को पढ़ा और ऐसे कुछ लोगों से, जो जितने अंतरंग मुक्तिबोध से थे, उतने ही मेरे, मुक्तिबोध के बारे में और भी बहुत कुछ जाना। ऐसे लोगों में एक श्री हरिशंकर परसाई थे। बहरहाल, जैसे मैं मुक्तिबोध को पढ़ता गया, उनसे प्रभावित भी हुआ वे हमारे समय के बड़े ईमानदार, बौद्धिक रचनाकार थे। कालांतर में जब मुक्तिबोध को कुछ लोगों ने एक मिथ बनाकर पेश करना शुरू किया, मेरी उनसे असहमतियाँ बनी और मैंने बराबर उसका विरोध किया। मैंने मार्क्सवाद को जितनी दूर तक जाना समझा है, मैं बराबर इस विचार का रहा हूँ कि किसी भी रचनाकार - विचारक की देवमूर्ति नहीं गढ़नी चाहिए। जबकि मुक्तिबोध को लेकर कुछ लोगों का पहले भी ऐसा ही प्रयास था और आज भी है। मेरा हमेशा से यह विचार रहा है कि हर रचनाकार के अपने अन्तर्विरोध भी होते हैं, जिनसे वह आजीवन जूझता-टकराता है। जरूरत उन अन्तर्विरोधियों को पहचानते हुए उनके बीच से उनकी शक्ति को पहचानने और उजागर करने की है; न कि अन्तर्विरोधों को ढकते हुए अंधभाव से उसे पूजने की। दुर्भाग्य से मुक्तिबोध को लेकर कुछ लोग ऐसा ही कर रहे थे। वे मुक्तिबोध पर किसी भी तरह का प्रश्न चिद्द सहन नहीं कर पाते। मेरी दृष्टि में यह नजरिया सही नहीं है। डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध के बारे में जो स्थापनाएँ दी हैं, मुक्तिबोध के तथाकथित प्रशंसकों ने रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को न केवल खारिज किया है, उन्हें मुक्तिबोध विरोधी भी घोषित किया है। जहाँ तक रामविलास शर्मा की स्थापनाओं और निष्कर्षों का सवाल है, उनमें अतिरंजना हो सकती है, परंतु मेरा यह विश्वास है कि रामविलास शर्मा का मुक्तिबोध संबंधी लेखन मुक्तिबोध-विरोधी लेखन नहीं है, वह हमें मुक्तिबोध को समझने में मद्द देती है। उन्होंने मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष को एकदम सही रूप में पहचाना है। उनके अनुसार मुक्तिबोध की सबसे बड़ी समस्या मार्क्सवाद से अपने जीवन, अपने व्यवहार और अपनी रचनाशीलता का संबंध बिठाने की थी। वे मार्क्सवाद को जीना चाहते थे; जबकि उनके मध्यवर्गीय संस्कार उनके आड़े आते थे। वे जीवनभर इस आत्मसंघर्ष को जीते रहे। उनकी बुनियादी समस्या थी, मध्यवर्ग व्यक्तित्वांतरित होकर किस तरह सर्वहारा हो सकता है। मार्क्सवाद उनके लिए, जैसा कि रामविलास जी ने कहा है; जीवनमरण का प्रश्न था। वे उससे हट नहीं सकते थे और उनके मन में जो तरह-तरह के सवाल उठते थे, उन सबका जवाब वे मार्क्सवाद से नहीं पा रहे थे। इसी उधेड़ बुन में वे, योग, रहस्य, तंत्र और न जाने किन-किन विचारकों के विचारों में गोते लगाते थे। मेरे विचार से निहायत प्रतिबद्ध और ईमानदार मार्क्सवादी होते हुए भी उनके विचारों में कुछ ऐसे अवकाश हैं, जिनके नाते कट्टर से कट्टर मार्क्स-विरोधी भी उन्हें अपनी शर्तों पर, अपने तर्कों की ज+मीन पर व्याख्यायित करते हुए आधुनिक हिन्दी का शीर्ष रचनाकार सिद्ध कर ले जाते हैं। इसके माने हैं कि मुक्तिबोध में ऐसा कुछ है, जो दूसरों को उन्हें अपने ढंग से व्याख्यायित करने की छूट देता है। मेरा कहना है कि हम मुक्तिबोध की विचारगत असंगतियों को नजर-अंदाज न करें, उन्हें पहचाने और उनसे सीख लें तथा उनमें जो ताकत है, उसे अपनी विरासत माने और उससे प्रेरणा लें। उनकी या किसी की देवमूर्ति न गढ़ें। अपने इन विचारों के साथ निश्चय ही मुक्तिबोध को अपने समय का बहुत जरूरी और बहुत महत्त्वपूर्ण रचनाकार मानता हूँ। बातें बहुत-सी हैं, जिन्हें मैंने लिखी भी है, फिलहाल इतना ही।
इस समय चर्चा के केन्द्र में जो दो विषय हैं - दलित-विमर्श तथा नारी-विमर्श, उनकी दिशा और दशा पर थोड़ा प्रकाश डालें।
दलित और स्त्री, वस्तुतः हमारी सामाजिक संरचना में सबसे अधिक सताए हुए हैं। इस विषय पर मैंने अन्यत्रविस्तार से लिखा है और कहा है कि हमारी सामाजिक संरचना में उन्हें सच पूछा जाए तो नरक की नियति दी गई है। अपनी साहित्यिक परंपरा को देखें और यथास्थितिवादियों की बात छोड़ दें, तो संवेदनशील रचनाकारों ने और उदार मन के मानवतावादी विचारकों ने इस स्थिति पर बराबर लिखा है और बराबर चिंता जताई है, परन्तु कुल मिलाकर इनके प्रति उनका दृष्टिकोण सहानुभूतिपरक और मानवीय करुणा से परिचालित ही रहा है जिस सामाजिक संरचना के ये शिकार हैं; उसके खिलाफ आवाजें या तो उठी ही नहीं या एक सुधारवादी मानसिकता के तहत सामाजिक विसंगतियों पर रंग-रोगन चढ़ाकर उस इमारत को दुरुस्त बनाने की बातें ही की गई हैं। मध्ययुग के निर्गुण संतों के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो समूचे भारतीय साहित्य में लंबे समय तक किसी दलित के बड़े रचनाकार के रूप में सामने आने का उदाहरण नहीं मिलता। यह बात स्त्री के संदर्भ में भी उतनी ही सही है।
आधुनिक युग में खासतौर से, नवजागरण काल से स्थितियों के बदलने के क्रम में स्त्रीऔर दलित-अस्मिता के सवाल कुछ उभरकर सामने आए। आजादी के बाद दलित और स्त्री अस्मिताएँ कुछ तो बदली हुई परिस्थितियों के नाते और कुछ पश्चिमी जगत्‌ में, खासतौर से स्त्री विषयक मुद्दों के उभरने के नाते अधिक प्रखर होकर सामने आईं। आज नई सदी में, हमारे प्रमुख साहित्यिक विमर्शों में स्त्री और दलित विमर्श हैं। जैसा मैंने कहा, मैंने इन दोनों मुद्दों पर थोड़ा-बहुत लिखा है, जो प्रकाशित है। संप्रति बहुत संक्षेप में बात करना चाहूँगा। पहले स्त्रीविमर्श को लें। स्त्री लेखन और स्त्री-विमर्श के नाम पर जो कुछ लिखा और कहा गया है उससे बुनियादी तौर पर सहमत होते हुए संप्रति मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि स्त्री लेखन और स्त्री-विमर्श का दायरा व्यापक हो और उसमें उस स्त्री को भी शामिल किया जाए जो गाँवों, कस्बों और दूर-दराज के अंचलों में हाशियों की जिन्दगी जी रही है। अभी स्त्री लेखन का अधिकांश मध्यवर्गीय दायरे में है, उसे बढ़ाया जाए। दूसरी बात, जरूरी है कि जो हजारों सालों के जड़ संस्कारों को ढोते हुए गुलामी में ही सुख का अनुभव कर रही है। अपने तन और मन पर पुरुष द्वारा अंकित सैंकड़ों निशानों को लिए हुए, उसी के कंधों पर चढ़ाकर परलोक जाना चाहती है। स्त्री-अस्मिता का एक शत्रु सामने है - पितृ सत्तात्मक सामाजिक संरचना, पुरुष दर्प आदि; परंतु उसका एक शत्रु जड़ संस्कारों के रूप में खुद स्त्री के भीतर है, जिससे पुरुष की सहायता से स्त्रीको अपने भीतर लड़ना है। स्त्री-मुक्ति का सवाल स्त्री-जाति की मुक्ति का सवाल है और मुक्ति जब भी होगी, सबकी होगी और एक बार में होगी। स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन में जब तक यह बात शामिल नहीं होती, स्त्री-मुक्ति के कोई मायने नहीं दिखाई देते। एक और बात, स्त्री मुक्ति का प्रश्न उपन्यास, कहानियों से आगे सामाजिक जीवन की सच्चाई बने। स्त्री-मुक्ति का तभी कोई अर्थ है और वह कार्य हड़बड़ी से नहीं हो सकता है। इस अभियान को बहुत संजीदगी से आगे चलना चाहिए।
इसी तरह दलित-विमर्श के बारे में भी मेरे जो कुछ विचार हैं, वे मेरे अनेक लेखों में विस्तार के साथ आ चुके हैं। मराठी के दया पवार से मेरे घनिष्ट संबंध रहे हैं और लंबी बातचीत भी रही है। हिन्दी के भी ओमप्रकाश वाल्मीकि तथा सूरजपाल चौहान जैसे दलित लेखकों से मेरे अच्छे संबंध और पत्राचार भी है। जिस तरह मुझे इस बात की खुशी है कि आज स्त्रीअपनी कलम से, अच्छी भाषा में अपने मन की बात लिख रही है, उसी तरह मुझे इस बात की भी खुशी है कि जिन लोगों के लिए हमारी सामाजिक संरचना के विधाताओं ने हमेशा-हमेशा के लिये पढ़ने-लिखने और सोचने के क्षेत्र निषिद्ध करार दिये थे, आज वे दलित अपनी कलम से अपनी भाषा में अपने मन की बात लिख रहे हैं और उस तरह से ही हमें रू-ब-रू कर रहे हैं, जिसे सदियों से वे सहते और भोगते आ रहे हैं, जहाँ तक दलित लेखन का सवाल है, उसके जरिये हिन्दी में पहली बार कुछ अछूते अनुभव-संवेदन हमारे साहित्य में आए हैं। दलित लेखकों की आत्मकथाओं ने और कहानियों ने निश्चित रूप से हिन्दी आत्मकथा और कथा-साहित्य को समृद्ध किया है। जहाँ तक वैचारिक लेखन का प्रश्न है, कुछ ऐसे मुद्दे जरूर उभरे हैं, जिन्हें लेकर अब तक दलित लेखकों और उनके समर्थक गैर-दलित रचनाकारों और विचारकों में आम सहमति नहीं बन सकी है। जहाँ तक मेरा विचार है पारस्परिक संवाद जरूरी है और यह भी जरूरी है कि रूढ़िवादिता और दुराग्रहों से अलग संजीदगी से इस संवाद को जारी रखा जाए ऐसे तत्त्व भी हैं जो बजाय इसके कि संवाद को जारी रखने में मद्द दे, चाहते हैं कि सब कुछ उन्हीं की शर्तों पर तय हो। संवाद का यह नजरिया सही नहीं है। मैंने इस विषय पर काफी लिखा है। जरूरी है कि दलित और उनके समर्थक गैर-दलित लेखक-विचारक अपने पूर्वग्रहों को छोड़ें, अपने अंतर्विरोधों के प्रति सजग हों, और मिल-जुलकर उस व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़े हों, जो यथास्थिति बनाए रखना चाहता है। किसी भी ओर से उपक्रम न हों, जो संवाद धर्मिता को क्षति पहुँचाए। ऐसे उपक्रम इस बीच हुए हैं, जो सही नहीं हैं जो संवाद को विवाद में बदलना चाहते हैं। दलित-मुक्ति का सवाल हो अथवा दलित-अस्मिता की बहाली का सवाल हो, इसे मिल-जुलकर ही उन लोगों के जरिये सुलझाया जा सकता है, जो यथास्थितिवादियों और कट्टरपंथियों के विरोध में मुद्दे पर एक मत हैं।

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शुक्रवार, 16 मई 2008

उत्तर-आधुनिकतावाद को एक मुहावरे के रूप में अपनाये जाने से हिन्दी आलोचना का कोई ज्यादा भला होने वाला नहीं है : प्रो. मैनेजर पाण्डेय

देवेन्द्र चौबे, अभिषेक रौशन, उदय कुमार एवं रेखा पाण्डेय
प्रो. पाण्डेय, देरिदा कहते हैं कि इतिहास एक पाठ है, उसका कोई निश्चित अर्थ नहीं होता है। देरिदा की इस धारणा के आलोक में उत्तर-आधुनिकता के बारे में आप क्या सोचते हैं?
देखिए, एक तो देरिदा खुद को उत्तर-आधुनिक नहीं मानते, और वैसे भी उत्तर आधुनिकतावाद का कोई सुनिश्चित अर्थ नहीं है। उत्तर-आधुनिकतावाद के बहुत सारे विचारक या कहिए कि जिनको उत्तर-आधुनिकतावाद का विचारक माना जाता है, उनमें से अनेक लोगों ने यह स्वीकार किया है कि हम उत्तर-आधुनिकतावादी नहीं हैं। इसलिए एक तो देरिदा के इस कथन को उत्तर-आधुनिकतावादी कथन नहीं माना जा सकता। इस कथन की अलग से व्याख्या और उस पर बात की जाए, यह समझ में आता है। आपके सवाल से एक बात यह भी जुड़ी हुई है कि जैसे देरिदा के इस कथन में सबसे अधिक महत्त्व अनिश्चितता को या .... को दिया गया है कि पाठ का कोई निश्चित अर्थ नहीं होता, उसी तरह उत्तर-आधुनिकतावाद को अधिकांश स्थापनाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनका भी कोई निश्चित अर्थ नहीं है। इसलिए उत्तर-आधुनिकतावाद की तरह-तरह की व्याख्याएँ प्रचलित हुई हैं, बल्कि मैं अतिरंजना का खतरा उठाते हुए यह कह सकता हूँ कि उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जितने मुँह उतनी बातें सुनाई पड़ती हैं। अब रही बात देरिदा के उस कथन की, तो उस कथन को दो-तीन संदर्भों में समझने की जरूरत है। पाठ के रूप में अब तक हम लोग लिखित पाठ जानते हैं और दर्शन के प्रसंग में यह परंपरा लम्बे काल से बनी हुई कि पुराने पाठों की नई व्याख्या करते हुए नई दार्शनिक दृष्टि का विकास होता रहा है; और मेरा ख्याल है कि जॉक देरिदा की मान्यता के मूल में दर्शन की यह परम्परा मौजूद है। पाठ का दूसरा रूप साहित्यिक कृतियों में दिखाई देता है। उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक को महत्त्व नहीं देते। स्वयं दो विचारकों ने, रोलाबार्थ और फूको ने लेखक के बदले पाठ को महत्त्व दिया है, या बल्कि रोलाबार्थ का तो यह कथन है कि लेखक की मृत्यु की कीमत पर ही पाठ और पाठक का महत्त्व स्थापित हो सकता है। तब पाठ से पाठक का सम्बन्ध ही आलोचना का केन्द्रीय तत्त्व होगा, पाठ से लेखक का सम्बन्ध नहीं। ऐसी स्थिति में, पाठक तो बदलते रहते हैं। हर युग के नए पाठक पुरानी रचनाओं का पुराने पाठों का नया अर्थ करते हैं। इसलिए जॉक देरिदा के इस कथन का एक अभिप्राय साहित्यिक पाठों के अर्थ की अनेकता भी है। आगे एक और स्तर पर इस बात को देखा जा सकता है। सबसे अधिक परेशानी यह है कि जॉक देरिदा सब कुछ को पाठ मानते हैं। ...तो इसका मतलब है कि संसार की घटनाएँ, स्थितियाँ ये सब पाठ हैं। अब यहीं से खतरनाक अर्थ की शुरूआत होती है। मान लीजिए कि उनके अनुसार हम मान लें कि इराक पर अमेरिकी हमला की घटना एक पाठ है, तो इतनी दूर तक तो सही होगा कि उसका एक अर्थ जार्ज बुश अपना लगाते हैं और दूसरा अर्थ इराक की जनता लगाती है और दोनों अर्थों की टकराहट हो रही है इतिहास की प्रक्रिया में। पर सवाल यह है कि वह दोनों में से किसी एक अर्थ को स्वीकार करें, क्योंकि यह कहना काफी नहीं होगा कि इस घटना रूपी पाठ के दो अर्थ हैं, बल्कि दो अर्थ कहने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए यह तो बाहर बैठे आदमी को बताना ही पड़ेगा कि वह किस अर्थ को सही समझता है। इसलिए जॉक देरिदा के इस कथन में अर्थ की अनिश्चितता के साथ-साथ विचारक की नैतिक स्थिति की भी अनिश्चितता है और ऐसी स्थिति में अर्थ का अनर्थ होने लगता है। मान लीजिए कि हम बाबरी मस्जिद के ध्वंश को भी एक घटना और पाठ के रूप में देखें तो उसका एक अर्थ हिन्दूवादी लोग करते हैं, दूसरा अर्थ मुसलमान करते हैं और तीसरा अर्थ इस देश के लोकतांत्रिक चेतना वाले लोग करते हैं और यह कहना कि तीनों अर्थ बराबर सही हैं कुछ भी कहना नहीं है, बल्कि अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचना है। इसलिए जॉक देरिदा के पाठ में फिसलन की संभावना बहुत है और इस तरह के मुहावरेदार वाक्यों के ऐसे ही खतरे हुआ करते हैं।
आज भारत में विचारधाराओं को लेकर जो सारी बहसें हो रही हैं उसमें उत्तर-आधुनिकतावाद से संबंधित बहस को आप किस रूप में देखते हैं?
देखिए, जहाँ तक मुझे मालूम है कि हिन्दुस्तान की बहुत सारी भाषाओं में उत्तर आधुनिकतावाद के बारे में बातें हो रही हैं, बहसें हो रही हैं, हम उनको नहीं जानते, आप भी नहीं जानते। दो भाषाएँ ऐसी हैं जिनमें होने वाली बहसों से हम परिचित हैं, एक तो हिन्दी दूसरी भाषा है अंग्रेजी। अंग्रेजी में जो उत्तर-आधुनिकतावाद से संबंधित बहसें हैं, वह पश्चिम में होने वाली बहसों का विस्तार हैं। मुझे हिन्दुस्तान के किसी अंग्रेजी लेखक की ऐसी किताब या ऐसा लेख पढ़ने को नहीं मिला है जो उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में कोई नई बात कहता हो। हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद पर जो बहस है वह और भी खराब स्तर की है। हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद पर कोई गंभीर बहस हुई ही नहीं है, न तो उसकी व्याख्या करने वाली बहस, न उसके पक्ष को ठीक से प्रस्तुत करने वाली बहस और न उसका विरोध करने वाली बहस; बल्कि मैं तो अभी यही कह सकता हूँ कि हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जो कुछ लिखा गया है वह बहुत कुछ पश्चिम में और वह भी अंग्रेजी के माध्यम से उत्तर-आधुनिकतावाद के बारे में जो बातें कही गयी हैं, उनकी पुनर्प्रस्तुति ही हिन्दी में हुई है। मतलब हिन्दी में जो उत्तर-आधुनिकतावाद पर लिखने वाले हैं उनमें सबसे अधिक तो सुधीश पचौरी ही लिखते रहते हैं और जाहिर है कि वे काफी उत्तर-आधुनिकतावादी भाषा में उत्तर-आधुनिकतावाद पर लिखते हैं। इसलिए उनके लेखन से भी उत्तर-आधुनिकतावाद का कोई स्वरूप लोगों के सामने स्पष्ट हुआ हो, ऐसा नहीं है। हाँ, इस बहस के प्रसंग में मैं यह जरूर कहूँगा कि असल में उत्तर-आधुनिकतावाद की बुनियादी बहस मार्क्सवाद से है। अपने यहाँ मार्क्सवादियों ने भी उत्तर-आधुनिकतावाद से पैदा हुए सवालों का कोई बहुत अच्छा उत्तर दिया हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। मेरी अपनी जानकारी में दो लोग हैं, एक तो प्रो. रणधीर सिंह और दूसरे एजाज अहमद, जिन्होंने उत्तर-आधुनिकतावाद पर गंभीरता से बहस करने की कोशिश की है मार्क्सवाद की ओर से बहस करने की कोशिश की है। इसलिए मैं कहूँगा कि अभी उत्तर-आधुनिकतावाद को ठीक से समझने-समझाने की जरूरत हिन्दी में बनी हुई है। देखिए, मैं विचार और आलोचना के प्रसंग में इस धारण को महत्त्व देता हूँ कि किसी भी विचार को अस्वीकार करने से बेहतर है कि उसको गलत साबित करना, अगर आपको वह गलत लगता है तो। क्योंकि अस्वीकार करने में कुछ बौद्धिक प्रयास नहीं लगता, गलत साबित करने में बौद्धिक प्रयास की जरूरत होती है। इसलिए हिन्दी में उत्साही मार्क्सवादियों ने उत्तर-आधुनिकतावाद को अस्वीकार करने का काम बहुत अधिक किया है और उसे गलत साबित करने का काम बहुत कम किया है।
उत्तर-आधुनिकतावाद के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि इससे स्थानीय स्वायत्तता और विकेन्द्रीकरण की जमीन मजबूत हुई है और उत्तर उपनिवेशवादी साहित्य, तीसरी दुनिया का साहित्य, नारी एवं अश्वेत लेखन, दलित साहित्य आदि केन्द्र में आए हैं। आप इस तर्क से कहाँ तक सहमत हैं?
देखिए, एक बात तो यह है कि हिन्दी में या सारी दुनिया में आपने जिन-जिन समस्याओं की चर्चा की है उन तीनों समस्याओं पर गंभीर बहसें उत्तर-आधुनिकतावाद के आने के बहुत पहले से चल रही हैं। मतलब स्त्रीकी स्वाधीनता और पराधीनता के प्रश्न पर बहस, भारतीय समाज के प्रसंग में दलितों की पराधीनता और स्वाधीनता पर बहस या फिर उसी से जुड़ा हुआ दलित साहित्य का प्रश्न और इसके साथ ही केन्द्र बनाम हाशिए का द्वंद्व, इन सब पर बहसें उत्तर-आधुनिकतावाद के आने के बहुत पहले से चल रही हैं। बात यह है कि उत्तर-आधुनिकतावाद केवल शब्द नहीं, बल्कि एक विचार प्रक्रिया के रूप में इतिहास पर आप ध्यान दें तो मालूम होगा कि कुल मिलाकर १९८० के आस-पास से इसकी शुरूआत होती है। थोड़ा पहले आप फूको को उसमें जोड़कर देखें तो थोड़ा और पीछे जाएँगे ७० के दशक में, अन्यथा सब लोग जानते हैं लेकिन स्त्रियों की स्वाधीनता के प्रश्न पर हम सारी दुनिया को छोड़ भी दें तो हिन्दी में ४० के दशक से बहस चल रही है कम या ज्यादे। मतलब महादेवी वर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक श्रृंखला की कड़ियाँ १९३५ के आस-पास उनके लिखे निबंधों का ऐसा संकलन है जो पुस्तकाकार १९४२ में छपा। मतलब हिन्दी में और हिन्दुस्तान में स्त्रियों की स्वाधीनता का सवाल देश की स्वाधीनता के सवाल से जुड़ा हुआ दिखाई देता है और उसके बाद आप देख सकते हैं हिन्दी में स्त्रियों की स्वाधीनता का एक बड़ा प्रमाण उनकी स्वतंत्र रचनाशीलता में दिखाई देता है। हिन्दी साहित्य में स्त्रियों को रचनाशीलता का इतिहास भी छिट-पुट ही सही बहुत पुराना है लेकिन व्यवस्थित रूप से उसकी शुरूआत नई कविता, नई कहानी के दौर से दिखाई देती है। अब रही बात दलित साहित्य की तो देखिए, हिन्दी में दलित साहित्य बाद में आया, पर मराठी में दलित साहित्य उत्तर-आधुनिकतावाद के बहुत पहले से स्थिर और स्थापित धारा के रूप में मौजूद है और हिन्दी के दलित लेखक उत्तर-आधुनिकतावाद से जितना परिचित हैं, प्रेरित हैं और प्रभावित हैं उससे बहुत अधिक वह मराठी के दलित लेखक से परिचित, प्रेरित और प्रभावित हैं। रही बात केन्द्र और हाशिए के द्वंद्व की, तो बहुत पहले बीसवीं सदी के दूसरे या तीसरे दशक की बात होगी, ...केन्द्र और हाशिए की बहस स्वयं आधुनिकतावादी विचार और रचनाशीलता में मौजूद रही है, इसलिए यह कहना कि उत्तर-आधुनिकतावाद के कारण स्त्रियों की स्वाधीनता, दलित लेखन या केन्द्र और हाशिए पर बहस की शुरुआत हुई उससे कोई दिशा मिली है मुझे एकदम ठीक नहीं लगता। हाँ, यह जरूर कहूँगा कि उत्तर-आधुनिकतावादी चिंतन ने इन तीनों प्रसंगों में थोड़ी मद्द की है, क्योंकि पहले के दिनों में ये सब विवाद के विषय के उत्तर-आधुनिकतावाद ने इन सबके महत्त्व को नए रूप में स्थापित करने में मद्द की है। इसलिए व्यक्ति की स्वायत्तता, समुदायों की स्वतंत्रता और समाज में हाशिए पर रहने वाले लोगों की ताकत का अहसास, यह उत्तर-आधुनिकतावाद की मद्द से बेहतर रूप में समझा गया है। इसलिए मैं यह जरूर कहूँगा कि ये सारी बहसें पुरानी हैं, पर उत्तर-आधुनिकतावाद ने इन बहसों को नई धार देने में मद्द की है।
मार्क्सवादी चिंतन का आधार आर्थिक विश्लेषण था। उत्तर-आधुनिकतावाद आर्थिक पक्ष के प्रति उदासीन है। क्या यह सही नहीं है कि आर्थिक पक्ष के प्रति उदासीनता के कारण ही मार्क्सवादी विचारक उत्तर-आधुनिकतावाद की आलोचना करते हैं?
हाँ, पर बात सही है। देखिए, उत्तर-आधुनिकतावाद असल में सामाजिक संरचना को महत्त्व नहीं देता और इसीलिए वह वर्ग को भी महत्त्व नहीं देता। मुझे तो लगता है कि यह उत्तर-आधुनिकतावाद का एक अंतर्विरोध है कि आप सुबह से शाम तक हाशिए के लोगों की बात तो करें, पर सर्वहारा की बात आते ही नाक-भौं सिकोड़ने लगें। स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था के हाशिए पर रहता है सर्वहारा वर्ग। लेकिन मार्क्सवादियों ने असल में जब उत्तर-आधुनिकतावाद की आलोचना की है तो इसलिए भी की है कि उत्तर-आधुनिकतावादी, सामाजिक, राजनीतिक द्वंद्व, संघर्ष और किसी भी तरह से मुक्ति के प्रयास को महत्त्व नहीं देते। वे बल्कि अधिक से अधिक द्वंद्व को विचार के स्तर तक स्वीकार करते हैं; बहस के स्तर पर उसको मानते हैं, लेकिन सामाजिक व्यवहार में भी उसको लागू करना जरूरी है यह वे स्वीकार नहीं करते और तब मुझे वाल्टर बेंजामिन का एक कथन याद पड़ता है कि पूँजीवाद और सर्वहारा के बीच लड़ाई विचारकों के दिमाग में नहीं, समाज में होती है। पर समाज में जो लड़ाई होती है वह लड़ाई किसी भी तरह से उत्तर आधुनिकतावादियों को स्वीकार नहीं। मुझे फूको का एक ... याद पड़ रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि एक स्तर पर हम सब लोग आंतरिक द्वंद्व से गुजरते हैं। अब दिमाग के भीतर द्वंद्व हो यह वे मानते हैं लेकिन समाज में वह द्वंद्व हो और निर्णायक दौड़ तक पहुँचे, यह उनके लिए महत्त्व की बात नहीं है। वे यह बात पहली बार थोड़े कह रहे हैं। बहुत पहले जयशंकर प्रसाद कामायनी में कह चुके हैं कि -
देवों की विजय दानवों की
हारों का होता युद्ध रहा
संघर्ष सदा उर अन्तर में
जीवित रह नित्य विरुद्ध रहा।
मतलब यह कि मनुष्य की चेतना के भीतर अच्छी प्रवृत्तियों और बुरी प्रवृत्तियों जिसको वे दैवी और आसुरी प्रवृत्तियाँ कहते हैं उनके बीच द्वंद्व चलता ही रहता है। जयशंकर प्रसाद के इस कथन के लगभग ५०-६० साल बाद बहुत नई बात की तरह जो फूको ने कहा वह वही है जो जयशंकर प्रसाद कह चुके। इसलिए मार्क्सवादी जब उत्तर-आधुनिकतावाद का विरोध करते हैं तो इसलिए भी कि उत्तर-आधुनिकतावादी मुक्ति को किसी धारणा और कोशिश को महत्त्व नहीं देते। उत्तर-आधुनिकतावादी दिमागी गुलामी की बात तो करते हैं पर सामाजिक और राजनीतिक गुलामी की बात नहीं करते और उस तरह की गुलामी से छुटकारा पाने के लिए जो संघर्ष है उसको भी महत्त्व नहीं देते। इसलिए बहुत लोगों का ख्याल है कि उत्तर-आधुनिकतावाद ने एक तरह से संघर्षशील चेतना को लकवाग्रस्त करने का प्रयास किया है कि हर चीज केवल बौद्धिक बहस तक सीमित रह जाए। समाज में जो संघर्ष है और द्वंद्व हैं वह केवल बौद्धिक बहसों से हल नहीं होंगे।
उत्तर-आधुनिकतावादी मजदूरी को सेवा का नाम देते हैं इस पर आपकी कोई टिप्पणी....।
फ्रांस के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री थे। अभी उनकी क्मंजी हुई है। उन्होंने कहा है कि पंडिताऊ शास्त्रार्थ की प्रवृत्ति उत्तर-आधुनिकतावाद में दिखाई देती है। मतलब यह कि मजदूरी को सेवा कहना, उसमें से शोषण के बोध को गायब करना। शोषण का बोध नहीं होगा तो संघर्ष की संभावना भी नहीं होगी। इसीलिए मैं बार-बार कहा करता हूँ कि उत्तर-आधुनिकतावाद असल में पूँजीवाद के वर्तमान दौड़ की रक्षा करने वाली विचारधारा है।
उत्तर-आधुनिकतावादी कहते हैं कि सर्वहारा वर्ग खत्म हो गया वे सब मध्य वर्ग में शामिल हो गए हैं। उनकी इस मान्यता पर आपका क्या सोचना है?
अरे,मतलब सपने में ऐसा हो गया होगा। सपनों पर तो मेरा नियंत्रण नहीं है।जाकर पूछना चाहिए कि भारत जैसे देश में जहाँ लाखों मजदूर बेकार हैं और दस हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है ये जीवन से मुक्त होकर मध्य वर्ग में शामिल हुए हैं क्या? इस मूर्खतापूर्ण मान्यता पर मैं क्या कह सकता हूँ। आप उन किसानों से जाकर अब तो खैर कैसे पूछेंगे आप, जिन्होंने आत्महत्या कर ली। उनके घर-परिवार के लोग बता सकते हैं कि वे मध्य वर्ग में शामिल हुए हैं या प्रेतों में शामिल हो गए हैं।यह बहुत ही भ्रामक, मैं कह सकता कि छल-छद्म से भरी हुई बातें हैं।
हिन्दी आलोचना में एक दौर ऐसा था जब आधुनिकता और-आधुनिकतावाद की चर्चा थी। आज उत्तर-आधुनिकतावाद की चर्चा जोरों पर है। आधुनिकता और-आधुनिकतावाद से उत्तर-आधुनिकतावाद की यह यात्रा साहित्य और समाज की वास्तविकताओं से कितना जुड़ा है?
भई देखो, बात यह है कि यह तो मैं मान सकता हूँ कि आजकल हिन्दी आलोचना में उत्तर-आधुनिकतावाद की चर्चा बहुत है, लेकिन मेरी जानकारी में हिन्दी में कोई उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना नहीं है, मैं सुधीश पचौरी को याद करते हुए यह बात कहना चाहता हूँ। उसका एक कारण है कि उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता भी हिन्दी में अभी उस तरह से विकसित नहीं हुई है जिसकी उत्तर-आधुनिकतावादी औजारों से ही व्याख्या करने की स्थिति बनती हो। इसलिए यह पूरी बहस ठोस आलोचना पर होने के बदले केवल विस्तार के स्तर पर मौजूद है। लेकिन आधुनिकता और आधुनिकतावाद से संबंधित जो बहस थी वह गहरे स्तर पर आलोचनात्मक बहस थी। क्योंकि आधुनिकता रचनाशीलता और-आधुनिकतावादी रचनाशीलता के विकास के साथ-साथ आधुनिक और-आधुनिकतावादी आलोचना का भी विकास हुआ। हिन्दी में उसका क्षेत्र बहुत लम्बा है। आप उसको आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से लेकर नामवर सिंह तक में देख सकते हैं और देखिए, जब आधुनिक कहा जाता है तो मैं तो मार्क्सवाद को भी आधुनिकता का ही एक रूप समझता हूँ। यद्यपि तब मार्क्सवादियों ने आधुनिकतावाद का विरोध किया लेकिन आधुनिक और-आधुनिकतावाद में फर्क करने की जरूरत है। मैं इसलिए आधुनिक विचारधाराओं के अन्तर्गत मार्क्सवाद को रखता हूँ, आधुनिकतावाद को इससे अलग रखता हूँ। जैसी रचनाशीलता, आधुनिकता और-आधुनिकतावाद के साथ हिन्दी में विकसित थी, वैसी रचनाशीलता और आलोचना अभी उत्तर-आधुनिकतावाद से प्रेरित-प्रभावित होकर हिन्दी में विकसित नहीं हुई है।
आपने एक साक्षात्कार में कहा है कि आलोचना को कोई वाद वहीं तक मद्द कर सकता है जहाँ तक वह रचना की अर्थवत्ता और सार्थकता समझने में सहायक हो। उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में यह बात कहाँ तक सच है?
देखिए, उत्तर-आधुनिकतावाद के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि यह हवा में तैरते विचारों को पकड़कर अपना व्यवसाय चलाने की कोशिश है। यह ठीक है कि मार्क्सवाद से या मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि से आप पुराने साहित्य की भी व्याख्या कर सकते हैं। लोगों ने कालिदास से लेकर भक्तिकाल होते हुए छायावाद तक की व्याख्या मार्क्सवादी दृष्टि से की है। मार्क्सवादी दृष्टि से गैर मार्क्सवादी रचनाओं की व्याख्या करना जिस तरह संभव है उसी तरह उत्तर-आधुनिकतावाद दृष्टि से गैर उत्तर आधुनिकतावादी और पुरानी रचनाओं की व्याख्या करना भी संभव है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब पहले उत्तर-आधुनिकतावाद की व्यवस्थित समझ विकसित हो। मेरी चिन्ता और शिकायत यह है कि अभी हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावाद की व्यवस्थित समझ ही पैदा नहीं हुई है। उत्तर-आधुनिकतावाद की एक स्थापना यह है कि साहित्य के प्रसंग में शास्त्रीय और लौकिक के बीच कोई फर्क नहीं है। ... अगर आप इसको रचना के स्तर पर देखना चाहें तो नागार्जुन की मंत्र कविता में इसको देखा जा सकता है। बाबा ने लौकिक और शास्त्रीय दोनों को मिलाने की कोशिश की है और बहुत सफल कोशिश की है। इस कोशिश के माध्यम से उन्होंने धारदार राजनीतिक समझ की कविता लिखी है मंत्र। अब कोई चाहे और उत्तराआधुनिकतावाद के भीतर लौकिक और शास्त्रीय के द्वंद्व और दोनों की एकता की जटिलता को समझता हो, तो वह नागार्जुन की इस कविता की ठीक से व्याख्या कर सकता है। लेकिन केवल अध्ययन की सुविधा के लिए उत्तर- आधुनिकतावाद को एक मुहावरे के रूप में अपनाते जाने से हिन्दी आलोचना का कोई ज्यादे भला होने वाला नहीं है।
एक समय में मार्क्सवादी विचारधारा ने हिन्दी साहित्य की दिशा और दशा बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। क्या आपको लगता है कि उत्तर-आधुनिकतावाद वही भूमिका निभा पाएगा?
देखिए, ऐसा है कि मार्क्सवादी आलोचना ने हिन्दी आलोचना और हिन्दी साहित्य की दिशा बदलने में जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी उसका एक कारण यह भी था कि मार्क्सवादी आलोचना केवल साहित्यिक दृष्टिकोण नहीं है। वह एक साथ साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टिकोण है और इस व्यापक दृष्टि के तहत मार्क्सवादी आलोचना ने हिन्दी साहित्य में हस्तक्षेप किया और उसकी दिशा बदलने में एक भूमिका निभाई। उत्तर-आधुनिकतावाद इस तरह की समग्रता को स्वीकार नहीं करता। दूसरी बात यह भी है कि मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का विकास अपने देश में जनसंघर्षों की लम्बी परंपरा से जुड़कर हुआ था और उसी प्रकार की रचनाशीलता भी विकसित हुई थी। हिन्दी में अभी उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का भी ठीक से विकास नहीं है। मैंने नागार्जुन की एक कविता का उल्लेख किया यद्यपि यह कविता लिखते समय नागार्जुन ने किसी उत्तर-आधुनिकतावाद को ध्यान में नहीं रखा था और वे जानते भी नहीं थे कि उत्तर-आधुनिकतावाद क्या है। सजग रूप से उत्तर-आधुनिकतावादी लेखक हिन्दी में मेरी जानकारी में एक ही है, वे हैं मनोहर श्याम जोशी, जो घोषित रूप से अपने उपन्यासों को उत्तर-आधुनिकतावादी मानते हैं और स्वीकार भी करते हैं। असल में जब तक हिन्दी में उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का विकास नहीं होगा तब तक उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना भी ठीक से विकसित नहीं होगी। इसीलिए मैं सारांश के रूप में कहूँ तो उत्तर-आधुनिकतावादी आलोचना दृष्टि महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, यद्यपि वह मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि का स्थानापन्न कभी नहीं बनेगी। लेकिन उसकी एक भूमिका हो सकती है बशर्तें कि एक तो स्वयं उत्तर-आधुनिकतावाद की शक्ति और सीमाओं का स्पष्ट बोध हो और दूसरे उत्तर-आधुनिकतावादी रचनाशीलता का भी विकास हो और तीसरे इन दोनों के बीच एक द्वंद्वात्मक संबंध का निर्माण हो।

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अदब से ही रिश्ता बाकी रहा : जाबिर हुसेन

रामधारी सिंह दिवाकर
आपके रचनाकर्म पर मरगंगा में दूब किताब लिखते समय मुख्यतः आपकी कृतियां ही मेरे सामने थीं। आपके परिवार या आपकी वंश-परंपरा के विषय में जानने की कोशिश मैंने नहीं की। अब चाहता हूं कि आपकी जिंदगी के कुछ अनजाने पक्ष भी हमारे सामने आयें। क्या आप अपने और अपने परिवार के विषय में कुछ बताना चाहेंगे?
मैंने अपने बारे में बहुत कम लिखा या कहा है, बल्कि नहीं के बराबर। इस मामले में अपने को औरों से थोड़ा अलग महसूस करता हूँ। जरूरत हो तो भी अपने रिश्तेदारों का जिक्र करने से परहेज करता हूँ। मैं उनमें नहीं, जो अपनी कारगुजारियाँ बयान करते वक्त अपने बाप-दादों की सिफतों का सहारा लेते हैं। बस इतना ही काफी है जानना कि मेरा खानदान कई पीढ़ियों से इल्म-व-अदब की ख़िदमत करता रहा है। कई अहम्‌ शायर-अदीब हुए हैं, अपने खानदान में। वालिद, चचा, फूफा, भाई-बहन, सब शायरी, अफसानानिगारी में अच्छी-खासी शोहरत के मालिक रहे हैं। बहार हुसैनाबादी, परवीन शाकिर, अख्तर पयामी, शीन अख्तर, महदी अली, जीशान फातमी, इनमें से कुछ हैं। बहार हुसैनाबादी ने तो अपनी उर्दू-फारसी शायरी से अपने समकालीन गजलगो शायरों को हैरत में डाल दिया था।
अपना रिश्ता सूफी परंपरा से रहा है। सात-आठ सौ वर्षों की अपनी तारीख़ लिखी मिलती है। मनेरशरीफ के सूफियों से अपना सिलसिला जुड़ा है। शाह शुएब अपने पुरखों में हैं। कइयों को बादशाहों और अंग्रेज शासकों के हाथ जाम-ए-शहादत पीने की नौबत आई है। उसूलपसंदी, ईमानदारी, इल्म-दोस्ती विरासत में मिली है। कोई अनर्गल आरोप लगाता है तो मन में आरोप लगाने वाले के प्रति दया का भाव जागता है। जो हमारी जड़ों से वाकिफ नहीं और जो अपनी जड़ों को ही हमारी जड़ समझने की भूल करता है, वही आरोप लगाने की कोशिश करता है। मुझे ऐसे लोगों पर तरस आता है।
मुझे नहीं मालूम इल्म-व-अदब की हमारी परंपरा और कितना आगे जायेगी। हमारे बाद की नस्लें इसे आगे बढ़ा सकेंगी, तभी तो हमारी विरासत महफूज रह पायेगी। कभी-कभी हालात मुझे मायूस कर देते हैं। लोगों में इल्म हासिल करने के लिए कोई बेचैनी नहीं रह गई है। आसानी से सब कुछ मिल जाए, यही जिंदगी का मकसद हो गया है।
कुछ अपनी अदबी तालीम, औपचारिक शिक्षा के बारे में बतायेंगे।
अदब की तालीम तो बस घर के माहौल ने दी है। सोचने-समझने की सलाहियत हुई तो देखा कि खानदान में अपने बड़े भाई अख्तर पयामी की जेहानत और शायरी की धूम मची है। सबकी जबान पर उनकी नज्में हैं, अशआर हैं। फिर शीन अख्तर की कहानियों का दौर आया। दोनों भाइयों की सियासी सरगर्मियों ने भी दिल-व-दिमाग़ में हरकत पैदा कर दी। स्कूल के दिनों से ही बीड़ी मजदूरों के संगठन से जुड़ गया। उनके सम्मेलनों, सभाओं में सक्रिय भागीदारी होने लगी। वालदैन को भाइयों की तरह मेरे बिगड़ने का भी अंदेशा हुआ तो सख्तियां बढ़ गयीं। पढ़ाई में अव्वल आते रहने की वजह से शिकायत का कोई मौक़ा उन्हें कभी नहीं मिला। अपनी ख्वाहिश राजनीति विज्ञान पढ़ने की थी, लेकिन वालिद ने अंग्रेजी साहित्य की डोर हाथों में थमा दी। फिर तो बस अदब से ही रिश्ता रह गया, बाकी चीजें पीछे छूट गईं। केन्द्रीय सेवाओं के इम्तेहान में बैठा, कामयाबी मिली, लेकिन किस्मत कहीं और ले जाना चाहती थी। फिर कालेज की नौकरी में आ गया। रिद्म ऑफ विजन इन हार्ट क्रेन्स पोयटरी शीर्षक से शोध-निबंध लिखा। आपातकाल के दौरान पुलिस कार्रवाई में शोध-निबंध की सारी पांडुलिपि नष्ट हो गई। किताबों का बड़ा सरमाया भी जाता रहा। आज भी इसकी याद आने पर गहरी टीस महसूस होती है।
आप हिंदी और उर्दू भाषाओं में लिखते हैं। क्या कभी आपके सामने अभिव्यक्ति की माध्यम-भाषा को लेकर कोई आंतरिक संकट महसूस हुआ? आपके आरंभिक लेखन के पीछे कौन-सी प्रेरणाएं थीं।
स्कूल-कालेज के दिनों से ही लिखने-पढ़ने का शौक गहराया। घर का माहौल ही ऐसा था कि अपनी पहचान बनाने के लिए कुछ न कुछ लिखना लाजिमी था। आरंभ में नज्में लिखीं, कविताएं लिखीं। पत्रिाकाओं में छपीं। आरंभिक रचनाएं सज्जाद जहीर की पत्रिका में प्रकाशित हुईं। बड़े प्यार से बीड़ी मजदूरों की तहरीक से जुड़ी मेरी रिपोर्टें और नज्में छापते थे। उन दिनों मैं आठवीं-नवीं कक्षा में था। नज्में छपने लगीं तो वालदैन की वहशत बढ़ी। वो दरअसल मुझे अफ़सर बनाना चाहते थे। लेकिन अपनी मिट्टी में ही सरकारी तंत्र से तनावपूर्ण दूरी रखने की ख़ासियत छिपी थी। भाषा को लेकर मुझे कोई समस्या नहीं रही। हिंदी-उर्दू दोनों भाषाओं में लिखता रहा। मेरे लिए बता पाना मुश्किल है कि कौन-सी रचना पहले किस भाषा में लिखी गई। ज्यादातर रचनाएं एक साथ दोनों भाषाओं में लिखी गईं। शुरू के दिनों में संस्कृत और फारसी का प्रभाव अधिक रहा। यह प्रभाव दरअसल मेरे शिक्षकों की देन थी। आहिस्ता-आहिस्ता, शायद कालेज के दिनों में, मैंने इस प्रभाव पर काबू पाने की कोशिश की। बाद के अनुभवों ने अभिव्यक्ति के लिए अपनी भाषा खुद गढ़ ली। आगे चलकर यह भाषा मेरी नहीं रह गई, मेरे सरोकारों और अनुभवों की भाषा हो गई। मेरे कितने काम की बन पाई यह भाषा, मैं नहीं जानता। लेकिन अपने सरोकारों की तल्ख़ सच्चाई बयान करने के लिए इससे अलग किसी भाषा का इस्तेमाल मेरे लिए मुमकिन नहीं था। उर्दू के कुछ अहम्‌ लोगों को मेरी तहरीरों में हिंदी-उर्दू के मिले-जुले अलफ़ाज की मौजूदगी पर एतराज है। इस एतराज को लेकर संजीदगी से गौर करने पर मुझे महसूस होता है कि वो मुझसे ख़ालिस क्लासीकी जबान लिखने की उम्मीद रखते हैं। मैं इसका अहल नहीं हूं। मेरे लिए अपने सरोकारों और अनुभवों से हटकर कोई रचना-माध्यम तैयार करना संभव नहीं है। आगे भी शायद यह संभव नहीं हो।
आपकी कथा-डायरियों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि तमाम घटनाएं सच्चाई की दस्तावेज हैं। एक कथाकार के रूप में सोचते हुए मुझे लगता है, इस कच्चे माल को लेकर कलात्मक रचनाएं भी लिखी जा सकती थीं लेकिन आपने ऐसा नहीं किया। क्या लेखन के यथार्थ को लेकर आपकी कुछ निजी मान्यताएं या प्रतिबद्धताएं हैं? अपनी कथा-डायरियों के वस्तुगत यथार्थ के विषय में साफ-साफ कुछ बताना चाहेंगे।
मैंने बहुत सोचकर, योजना बनाकर, गहरा परिश्रम करके अपनी कथा-डायरियों की दुनिया नहीं रची है। यह दुनिया दरअसल मेरे सामाजिक सरोकारों और संघर्षों की कोख से अपने आप जन्मी है। इसमें रचनाकार की हैसियत से मेरा कोई विशेष योगदान नहीं। मैंने सिर्फ इतना किया कि जो तजुर्बे मेरे सामने आये, जो घटनाएं मेरी आंखों ने खुद देखीं, और जिनसे होकर मैं खुद गुजरा, उनको शब्दों का जामा पहनाया और उन्हें एक कथावरण दिया। कथावरण देते समय भी मैंने यह सावधानी जरूर बरती कि मूल कथा-सामग्री पर कला की कृत्रिम परतें नहीं पड़ें। मेरे लिए कला के उस रूप को स्वीकारना कठिन हो जाता है, जो समाज को, पाठकों को जीवन के यथार्थों से कट जाने के लिए प्रेरित करता है। मुझे कला का वही रूप स्वीकार है जो उपेक्षित समाज को न सिर्फ आत्मबल प्रदान करे, बल्कि उसे हालात से जूझने के लिए मानसिक रूप से तैयार भी करे।
मैं किसी शाम पड़ोस के किसी गांव में जाता हूँ, अपनी आंखों से गांव के शोहदों की दरिंदगी की शिकार शांतीया की लाश देखता हूँ, प्रतिरोध के लिए दस-बीस गांव के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तैयार करता हूँ। स्वयं पुलिस बल की ज्यादतियों का मुकाबला करता हूँ। आख़िरकार शोहदों को सजा दिलाने में कामयाब होता हूं। अब यह एक तजुर्बा मेरी कथा-डायरी का आधार बनता है। इतना जरूर है कि डायरी लिखते वक्त मैं घटना के प्रतिरोध में अपनी भूमिका को बिल्कुल गौण कर देता हूँ। ऐसा नहीं होने पर मेरी हस्तक्षेप-कार्रवाई ही डायरी के केंद्र में आ जाती और जो स्थान बलात्कार की शिकार उस दलित महिला को मिलना चाहिए वो नहीं मिल पाता। यह उदाहरण मेरी कथा-डायरी के तमाम संदर्भों को परिभाषित करता है। डायरी में बस कहीं-कहीं एक नैरेटर के रूप में मेरी मौजूदगी दर्ज होती है, वो भी बिल्कुल हाशिए पर।
मैं अपनी कथा-डायरी के अधिकांश पात्रों से गहरे तौर पर जुड़ा होता हूँ। आज भी सैकड़ों ऐसे पात्र जिंदा हैं, मेरे आसपास हैं, जिनकी यातनाओं को मैंने अपनी डायरी में दर्ज किया है। लेकिन उन्हें उनकी यातनाओं से निजात दिलाने की ख़ातिर मैंने जो लड़ाइयां लड़ीं उनका जिक्र मैंने अपनी डायरी में करना जरूरी समझा। मेरा मक़सद हालात के प्रति व्यापक समाज में तेजी से क्षीण हो रही संवेदनशीलता के तंतुओं को दोबारा जिंदा या बहाल करना था। मैं इस मक़सद में बड़ी हद तक सफल रहा हूँ। बिहार में नई सामाजिक शक्तियों के उभार तथा उनकी व्यापक गोलबंदी के पीछे इन प्रयासों की अच्छी-खासी भूमिका रही है। मैंने इस काम में अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा लगाया है। मैं सुख और समृद्धि के पीछे कभी नहीं भागा। मैंने, एक सामान्य, मध्यम वर्ग के परिवार को जो सुविधायें मिल सकती हैं, उनसे भी अपने आप को बचाने की कोशिश की। अपने लिए कांटों का यह रास्ता मैंने अपनी मजरी से चुना है, किसी और को इसका कुसूरवार नहीं ठहरा सकता। मेरी रचनाओं की मिट्टी इन्हीं सच्चाइयों से गूंधी गई है।
आपने कविताएं भी लिखी हैं। ज्यादा सहज आप कहां होते हैं, डायरी में या कविताओं में? ये दो भिन्न विधाएं क्या जाबिर हुसेन के अंतर्जगत के अलग-अलग प्रतिरूप हैं?
कथा-डायरी का रिश्ता मेरे सामाजिक सरोकारों से है, जैसा मैं पहले कह चुका हूँ। ये मेरे खुद से बाहर के सफर को रेखांकित करती है, मुझको व्यापक समाज से जोड़ती है। लेकिन कविता मेरे भीतर जो कैफ़ियत है, उसको व्यक्त करने का माध्यम बनती है। कविताओं में अपने आपसे बातें करने का अवसर मिलता है। कभी-कभी अपने आपसे बातें करना जिंदा रहने के बराबर है। यह सिलसिला रुक जाये तो शायद जिंदा रहना भी मुश्किल हो। कविताओं में अपने आपको पूरी तरह खोलने का सुख है, जो आपका होकर भी सिर्फ आप तक सीमित नहीं रहता उसकी हदें व्यापक हो जाती हैं, विस्तारित भी। कविता मेरी रचनाशीलता को जिंदा रखती है। इसलिए बार-बार इसकी शरण में आता हूँ।
इन सबके बावजूद आप सच्ची बात पूछेंगे तो कहूंगा कि मैं न तो कविताएं लिखता हूँ, न कथा-डायरियां। ये दोनों मुझसे खुद को लिखवाती हैं और मेरे लिए मुश्किलें पैदा करती हैं। मुझे इन मुश्किलों से निबटने की कला नहीं मालूम। मैं करूँ भी तो क्या!
इधर क्या कुछ लिख रहे हैं?
तीन अहम्‌ काम अपने हाथ में ले रखें हैं। एक तो विधान परिषद् में अपने बारह साल के अनुभवों पर आधारित पुस्तक है। काफ़ी हिस्सा इस पुस्तक का लिखा जा चुका है। शीघ्र प्रकाश में आ जाए, ऐसी इच्छा है। दूसरा काम कबीर आज पर अपनी अधूरी पुस्तक का है। इसमें इधर थोड़ी प्रगति हुई है। लेकिन सबसे अहम्‌ काम उपन्यास कैनवस पर लिखी जा रही लंबी कथा-डायरी दोआबा है। ज्यादा समय इसी पर दे रहा हूं। दोस्तों और मेहरबानों ने जिंदा रहने दिया, तो जल्द ही ये सारे काम मुकम्मल हो जायेंगे।
आप लंबे समय से राजनीति में हैं। क्या हिंदू बहुल दलीय राजनीति में आपको मुस्लिम होने या इस नाते अकेले पड़ जाने का भी एहसास हुआ है?
मैं राजनीतिक आंदोलनों से जुड़ा रहा हूँ। अब भी मेरे रिश्ते राजनीति से हैं। मैं वर्षों राजनीतिक ओहदों पर रहा हूं। एसेम्बली काउंसिल में रहा हूं। एक दशक से ज्यादा मैंने सदन चलाया है। अब कुछ महीनों से संसद में हूँ। मेरे लिए ये ओहदे हमेशा व्यापक सामाजिक जवाबदेही निभाने का माध्यम रहे हैं। मैं अपने फैसलों से कई निहित स्वार्थी राजनेताओं और अपराधी सरगनाओं को नाराज करता रहा हूं। जो तत्त्व जनता के बुनियादी सवालों पर अपने स्वार्थों को तरजीह देने के आदी हैं, उनसे हमेशा मेरा संघर्ष रहा है। ऐसे तत्त्व न सिर्फ मेरी मुखाल्फ़त करते हैं, बल्कि मेरे खून के प्यासे भी हैं। मैं इन तत्त्वों के इरादे जानता हूं, लेकिन इससे घबराता नहीं। समय-समय पर ये तत्त्व मुझे विवादों में ढकेलने की कोशिश करते रहते हैं। मैं उनके नाम गिनाना नहीं चाहता। सामाजिक संदर्भों में मेरी निरंतर क्रियाशीलता के कारण ही ये तत्त्व मुझे निशाना बनाते हैं। ये दरअसल नस्लवाद में यक़ीन रखने वाले लोग हैं। ये अपनी सोच और नजरिए से घोर जातिवादी और सांप्रदायिक हैं। मैं उन्हें तमाम पसमांदा बिरादरियों का हिमायती नजर आता हूँ। ये हमेशा लोगों को याद दिलाते रहते हैं कि मेरा जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ है और राजनीति में मेरे अधिकार सीमित हैं। दलितों के प्रति भी इनके विचार कुछ इसी प्रकार के हैं। ये स्वस्थ एवं प्रगतिशील विचारों के दुश्मन हैं। इससे ज्यादा मैं इस वक्त उनके बारे में कुछ नहीं कहना चाहता।



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अभी तो हम सब कोशां है : नासिरा शर्मा

डॉ० फ़ीरोज अहमद
आपकी साहित्य साधना कब और कैसे आरम्भ हुई और उसके लिए प्रेरणा आपको कहाँ से मिली।
घर में लिखने पढ़ने का माहौल था। उससे कहाँ बचा जा सकता था। स्कूल में भी कहानी प्रतियोगिता आयोजित होती दोनों जगह रचनात्मक माहौल सृजन की दुनिया को लगातार अंकुर फोड़ने की प्रतिक्रिया में रखते जिसके कारण लेखन एक सहज प्रक्रिया के रूप में जीवन का हिस्सा बनती चली गयी।
सृजन से पूर्व, सृजन के समय और सृजन के पश्चात्‌ आपकी मनःस्थिति क्या होती है?
लिखने से पहले एक बेचैनी, कभी-कभी उदासी, अक्सर ख़ामोशी की कैफियत बनती है। लिखते समय जज्बात और ख्यालात का हुजूम उत्तेजना भरता है। तब कोई शोर या आवाज किसी तरह का खलल कभी मूड खराब करता है तो कभी तेज गुस्सा दिलाता है। उसका कारण भी है कि आपके हाथ से दरअसल भाषा का तारतम फिसल जाता है। जो बहाव सहज रूप से निकलता है वह फिर बनावट से पूरा होता है जो मुझे ठीक नहीं लगता मगर हमेशा ऐसा नहीं होता जब कहानी गिरफ्त में हो तो बाक़ी चीजें बेकार सी लगती हैं। क़यामत भी आकर गुजर जाये तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लिखने के बाद एक अजीब-सी खुशी, इत्तमिनान-सा महसूस होता है मगर इस अहसास से मैं कोसों दूर रहती हूँ कि मैंने कोई शहकार रचा है क्योंकि कहानी मुकम्मल हो जाने के बाद भी, अभिव्यक्ति और किरदार की सहजता को लेकर मैं काफी सोचती और शब्दों को अक्सर बदलती रहती हूँ। जब हर तरफ से मुतमईन हो जाती हूँ तभी छपने भेजती हूँ।
साहित्य को आप किन शब्दों में परिभाषित करेंगी।
इन्सान बने रहने की कोशिश और इन्सान बने रहने के लिए दूसरों को उस कोशिश में शामिल करना।
इतनी लम्बी साहित्य साधना में क्या कभी आपका जी ऊबा है? यदि हाँ तो क्या कारण रहे हैं?
बीच-बीच में काफी फुजूल के काम करती हूँ। इसलिए हमेशा ताजगी का अहसास बना रहता है। लेखन और लेखक का भारी लबादा पहनना और उसे तकलीफ के साथ घसीटते जाना मेरी फितरत नहीं है।
अवाम के सन्दर्भ में साहित्य की भूमिका को आप किस प्रकार देखती हैं।
कहानियों में अवाम का दखल दरअसल एक महत्त्वपूर्ण गारा है जिससे आप कहानी बनाते हैं। मगर अफसोस जिस अवाम के लिए हम लिखते हैं ज्यादातर वे लोग साहित्य नहीं पढ़ पाते हैं। पहला कारण शिक्षित न होना, दूसरा मेहनत मजदूरी और सर छिपाने की जद्दोजहद के बाद उनके पास थककर सोने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है। हम खुद ही लिखते हैं और खुद ही पढ़ते हैं जो शिक्षित है जिन्हें साहित्य से लगाव है उन तक पुस्तकें उस तरह सुलभ नहीं है जैसी होनी चाहिए। साहित्य की कोई कृति न सामूहिक रूप से समाज की धारा बदल पाई न समाज की कुरीतियों की जड़ से उखाड़ पाई न पुराने कानूनों में संशोधन करा पाई मगर हाँ, व्यक्तिगत रूप से कुछ व्यक्तियों को, बिखरे रूप से, जरूर बदल पाई मगर वास्तविकता तो यह है कि क्या अकेला चना भाड़ भूंज सकता है? कहने का अर्थ साफ है कि समाजिक जकड़न और जड़ सोच वाले कुनबे में जो व्यक्ति बदला, वह पूरे परिवार को नहीं बदल पाया मगर उसे घर निकाला जरूर मिला तो भी अपवाद की कमी नहीं है। यह अपवाद कब सामूहिक फोर्स में बदलेंगे और अवाम और साहित्यकार में कब संवाद स्थापित होगा कहा नहीं जा सकता है। अभी तो हम सब कोशाँ हैं।
क्या साहित्योपजीवी होकर जिया जा सकता है।
नहीं।
बाल-साहित्य के रूप में आपने साहित्य का विपुल मात्रा में सृजन किया है। हिन्दी के साहित्यिक परिदृश्य में उसकी स्थिति और भूमिका पर आपका दृष्टिकोण क्या है?
बच्चों के लिए मैंने बचपन से लिखा। लगातार लिखा मगर उस लेखन का उस तरह नोटिस नहीं लिया गया जिसको राष्ट्र के स्तर पर पहचान का नाम दिया जा सकता है क्योंकि हिन्दी की दुनिया में बाल-साहित्य का कोई अहम्‌ रोल नजर नहीं आता है जबकि उसके लिखने वालों की संख्या काफी है और वे जो केवल बाल-रचनाओं के साहित्यकार हैं उनको भी वह सम्मान और पहचान किसी मंच पर जैसी विदेशों के रचनाकारों को मिली हुई है नहीं प्राप्त है। जबकि बहुत कुछ बाल-भवन, नेशनल बुक ट्रस्ट के द्वारा होता रहता है मगर वह सब कुछ मुख्यधारा जैसा नजर नहीं आता है न इनकी चर्चा खास व आम में बराबर से होती है। बाल पत्रिकाएँ भी हैं। बाल-साहित्य पुरस्कार भी हैं। मगर जिस तरह उर्दू में अब्बू खाँ की बकरी को साहित्यिक कृति होने का तमग़ा मिला हुआ है या हर बड़े लिखने वाले ने बच्चों के लिए भी लिखा है वैसा रिवाज हिन्दी में देखने को नहीं मिलता है भले ही अन्य भारतीय भाषाओं में हो। हम भूल जाते हैं कि लेखक इन्सानी अहसास को अपने कलम से काग़ज पर उतारता है न कि खानाबन्दी किये इन्सानों में से किसी को उठाता है। गरीब-अमीर, अफसर-नौकर, मर्द-औरत, बूढ़े-बच्चे सब मिल कर परिवार में रहते हैं और समाज की संरचना करते हैं, मगर जब साहित्यकार कलम उठाता है तो उसकी रचना से अक्सर बाल पात्र गायब रहते हैं आखिर क्यों? क्या स्वयं उसका बचपन उसका पीछा कभी छोड़ता है? (कृष्ण बलदेव वेद के उपन्यास उसका बचपन याद आ गया) कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि हम अपने तक सीमित न रहें वैसे भी बच्चों के लिए लिखना आसान काम नहीं है। जबरदस्ती लिखवाना भी नहीं चाहिए मगर जो लिखते हैं उनको आदर व सम्मान मिलना चाहिए और हमारी मानसिकता में यह बात दाखिल हो जानी चाहिए कि बच्चों का एक बड़ा संसार है जिसमें जिज्ञासा, मासूमियत, भय, खुशी, चीजों को देखने और महसूस करने का बिल्कुल अलग अनुभव है जिसको समेटने का अर्थ है कि हम अपनी रचनाओं में केवल नई पीढ़ी को जगह नहीं दे रहे है बल्कि अपने कलम और अपनी सोच को निरन्तर शादाबी बख्श रहे हैं।
साधारणतया कहानी की एक परिभाषा दी जाती है कि कहानी घटना या घटनाओं का सुसंयोजित रूप है। आज की कहानी इस दृष्टि से काफी भिन्न नजर आती है। तो क्या इसको कहानी नहीं मानना चाहिए। आप अपनी राय बताइये।
घटनाएँ यदि कहानियाँ हैं तो फिर रिपोर्टिंग क्या हैं। पत्रकारिता और साहित्यिक लेखन का बुनियादी फर्क़ यह है कि एक में सूचना होती है और दूसरे में अहसास। रपट की सीमा जहाँ समाप्त होती है कहानी वहाँ से शुरू होती है। कहानी इन्सान के अन्दर की दुनिया को खोलती है बाहर के ब्योरे गैरजरूरी तौर से नहीं देती है। कहानी मेरी नजर में वह है जो घटनाओं का उल्लेख न करके उस घटना के प्रभाव का वर्णन करे जो इन्सान पर बीती है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह लेखन रिर्पोताज भी हो सकता है और लेख भी कहला सकता है।
साहित्य लेखन में महिलाओं की क्या स्थिति है और उसका मूल्यांकन किस प्रकार किया जाता है?
हिन्दी साहित्य में महिलाओं का हमेशा से योगदान रहा है मगर हाँ, अब संख्या काफी बढ़ गई है। विभिन्न तरह के मुद्दों को लेकर उनकी कलम मुखर हुई है। यदि आप सवाल सम्पूर्ण औरत की स्थिति पर करते तो अच्छा होता है। अभी तक सही तरीके से हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन नहीं हो पाया तब उस लेखन के लिए क्या कहूं जो ग़ैरजरूरी तरीक़े से मुख्य धारा से अलग हो अपनी पहचान बनाने के संघर्ष में रत है।
विभिन्न साहित्यिक विमर्शों के सन्दर्भ में आपकी क्या मान्यता है। इसकी प्रासंगिकता के सन्दर्भ में आप क्या लिखती हैं।
बुनियादी तौर पर मैं साहित्य में खानाबन्दी की क़ायल नहीं हूँ। हम एक समाज में रहते हैं। समाज के बाँटे जाने पर एतराज करते हैं मगर वही काम हम अपने-अपने कार्य क्षेत्र में करने से बाज नहीं आते हैं। कुछ जुल्म हमारे यहाँ हुए हैं। उनका सिलसिला आज भी अफसोसनाक तरीके से जारी है मगर उसको इस तरह से खत्म करने की दलीलें कि विमर्श व आरक्षण देकर खत्म किया जाय न न्यायसंगत लगती है न तर्कसंगत लगती है। यही कारण है कि हम बहुत सारे मुद्दों से जूझने के बावजूद कहीं पहुंचे नहीं हैं।
कुछ लोगों का मत है कि आज की कहानी पाठकों से कट गई है। लेखक लेखकों से प्रशंसा प्राप्त करने के लिए लिखता है। क्या यह सही है?
इसमें कोई शक नहीं है कि आज पाठकों के वैसे खत नहीं मिलते हैं जैसे कि बीस वर्ष पहले मिलते थे। जिसमें कहानी पर जमकर बात होती थी। कहीं पर कुछ घटा तो है जो संवाद की स्थिति नहीं बन पाती है। इसमें कोई शक नहीं है कि हमने कुछ जगहों पर बेजा हस्तक्षेप कर उनको पीछे धकेल दिया है जिनकी राय और प्यार की हमें जरूरत होनी चाहिए। शायद इसी के चलते पाठकों में पुस्तक खरीदने की संख्या भी घटी है। पहले दाम ज्यादा फिर उपलब्ध नहीं। खरीद्दारी लाइब्रेरी या अन्य संस्थाओं में बल्क के रूप में होती है तो वहाँ पाठक नहीं। बात केवल लेखक, प्रकाशक, पाठक के बीच तक सीमित नहीं है बल्कि राजनीति का तंग दायरा और गैर जरूरी मुद्दों पर फोकस भी इस दुर्दशा में शामिल हैं।
हिन्दी कहानी साहित्य का भविष्य कैसा है?
हिन्दी में कहानियाँ लिखी जा रही हैं। बेहतर भी और खूबसूरत भी। जैसे-मधुसूदन आनन्द की जर्राह मेराज अहमद की अमरूद और हरी पत्तियाँ हसन जमाल की जमील मुहम्मद की बीवी', अब्दुल बिस्मिल्लाह की कागज के कारतूस', चित्रा मुद्गल की मिट्टी, रवीन्द्र कालिया की सुन्दरी बहुत देर तक याद रह जाने वाली कहानियाँ हैं। मगर परेशानी यह है कि हमारे कलम पर कुछ नाम चढ़ गये हैं। हम लगातार उसे दोहराते रहते हैं। कहानियों के नए नामों के लिए जगहें तंग हैं या फिर हम पढ़ते ही नहीं हैं क्योंकि भीड़ बहुत है। पत्रिकाएँ फिलहाल बहुत हैं। खेमे अंसख्य है। पैमाना तय नहीं, कसौटी का कोई प्रमाणिक मंच नहीं। अपनी ठफली अपना राग है। मगर यह समय निकल जायेगा। भुला दिए जाने के बाद भी बेहतर चीजें सामने आयेंगी। ऐसा हो रहा है। धूल, धुआँ, शोर, परिदृश्य को वक्ती तौर से धुंधला बना सकते हैं मगर कब तक?

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