शनिवार, 10 मई 2008

मैं कहता हूँ अदब से कुछ न कुछ होता है : शहरयार

डॉ. जुल्फिकार

आपका जन्म कब और कहाँ हुआ?
मेरे वालिद पुलिस में इंस्पेक्टर थे, उनका ट्रांसफर होता रहता था, जब वह आँवला जिला बरेली में पोस्टेड थे; वहाँ मेरा जन्म हुआ। मूल रूप से हम लोग चौंढेरा बुलन्दशहर के रहने वाले हैं। बरेली की ही बहेड़ी तहसील में मेरी बिस्मिल्लाह हुई और यहीं से मेरी पढ़ाई शुरू हुई। १९४५ में वालिद साहब के रिटायर होने के बाद में बड़े भाई के पास बेनीगंज जिला हरदोई चला गया, वहीं कुरान शरीफ पढ़ा। कक्षा छः के बाद मेरी शिक्षा अलीगढ़ में हुई।
आप भारत के सुविख्यात कवि हैं, आपकी शायरी का आग़ाज कब से होता है?
जैसे आमतौर पर घरों में शायरी का माहौल होता है, आसपास के लोगों में शायरी की चर्चा होती है और शायर बन जाते हैं। मेरा इससे बरअक्स है। मेरे घर में दूर-दूर तक शायरी का कोई सिलसिला नहीं था। सब लोग पुलिस फोर्स में थे। बस इत्तेफ़ाक है कि मेरी मुलाकात सन्‌ १९५५ में खलीलुर्रहमान आजमी साहब से हुई जो उर्दू के बड़े शायर और नक्काद (आलोचक) थे। उन्हीं की सोहबत में मैंने शेर कहना शुरू किया। सन्‌ १९५७-५८ में बाकायदा संजीदगी से शायरी करने लगा।
आपक का नाम कुँवर अखलाक मुहम्मद खान है, लेकिन आपने शहरयार नाम क्यों रख लिया?
मेरे एक मित्रथे, हैदराबाद के, जो अच्छे शायर भी थे उन्होंने मुझे लिखा कि मेरा नाम (कुँवर अखलाक मुहम्मद खान) बहुत अजीब-सा नाम है, कहीं से शायराना नाम नहीं लगता है। मैं ग़जल में कुँवर का तखल्लुस करता था। कुँवर के मानी प्रिन्स के होते हैं। खलीलुर्रहमान आजमी ने कहा कि तुम शहरयार रख लो, तो इस तरह मैंने अपना नाम शहरयार रख लिया।
आपकी शायरी में खलीलुर्रहमान आजमी साहब का क्या योगदान रहा है?
जब मैंने अपने वालिद की ख्वाहिश को पूरा नहीं किया, यानी पुलिस में नहीं जा सका तो घर में टेन्शन हुआ और मैं घर छोड़कर खलील साहब के पास रहने लगा। वही मेरे सरपरस्त थे, मोहसिन थे। मगर शायरी में मैंने उनसे इस्लाह वगैरा नहीं ली।
जिस शायरी ने आपको इस मुकाम तक पहुँचाया, इसकी सुबह कहाँ से होती है?
इसका मुझे खुद ही नहीं मालूम, वो ठीक-ठीक मैं आपको बता नहीं सकता।
लेकिन प्रत्येक उपलब्धि के पीछे कोई न कोई कारण या जुनून अवश्य होता है?
हाँ, वो मेरे अन्दर है। मैं हॉकी खेलता था, वो भी जुनून की हद तक। इस दृष्टि से मेरा एम.ए. मनोविज्ञान करते हुए जाया गया था, उस जमाने में मैंने सिर्फ शायरी ही की थी। बहुत ज्यादा लिखा, ऊपर वाला मुझ पर मेहरबान रहा। मेरी गज+लें बहुत जल्दी महत्त्वपूर्ण पत्रिाकाओं में छपने लगीं जिसमें छपना बहुत मुश्किल होता है। लोगों ने मुझ पर तवज्जो देनी शुरू कर दी। उर्दू मौअल्ला का सेक्रेट्री हुआ। मैंने एक ग़ालिब नाम से १५ रोजा (पाक्षिक पत्र) पर्चा निकाला। जिसे बहुत पसंद किया गया। मैंने जिस काम में भी हाथ डाला उसमें मुझे मकबूलियत और शोहरत मिली।
आपने हिन्दी फिल्मों के लिए भी अच्छे गीत रचे हैं। फिल्म जगत्‌ से जुड़ना कैसे हुआ?
फिल्म में जाना भी एक घटना है। इसके लिए मैंने कोई कोशिश नहीं की। मुजफ्फर यहाँ पढ़ते थे, मेरा मजमुआँ (काव्य-संग्रह) उनके पास था। उन्होंने फिल्म बनाने का इरादा किया और मेरी दो गजलें ले लीं गमन फिल्म के लिए। इसके बाद उमराव-जान के लिए गीत रचे।
गमन और उमराव-जान जैसी हिट फिल्मों के बाद क्या आपने फिल्मों के लिए लेखन जारी रखा?
हाँ! इसके बाद भी कई फिल्मों के लिए लिखा है, यश चोपड़ा की फिल्म फासले और मुजफ्फर की अंजुमन के लिए गीत दिये।
आजकल आप फिल्मों के लिए क्यों नहीं लिख रहे?
पहले भी मेरा कोई इरादा नहीं था, वो भी एक इत्तेफ़ाक था। मैं मुजफ्फर के सम्पर्क में आया और लिखना हुआ। मेरे वालिद एक बात कहा करते थे कि आदमी को ये तो नहीं मालूम होता कि वो क्या कर सकता है, लेकिन ये बहुत आसानी से मालूम हो जाता है कि वो क्या नहीं कर सकता, तो उसे वो नहीं करने की कोशिश करनी चाहिए? जिस तरह की अब फिल्में बन रही हैं, और गीत आ रहे हैं, वो बहुत आसान तो है लेकिन मैं उसे लिख नहीं सकता। जब तक फिल्म में कोई कहानी न हो, उसमें शायरी की गुंजाइश न हो। मैं उस तरह की चीज नहीं लिख सकता।
आपके लिहाज से वहाँ म्यारी शायरी नहीं होती?
जेहन उनके साफ नहीं हैं, वहाँ कोई मौलिकता देखने को नहीं मिलती, फिल्मी दुनिया में बस पैसा कमाने की होड़ लगी रहती है।
रिटायर्डमेंट के बाद आपकी सरगर्मियाँ क्या रहती है?
जब मैं पढ़ता था, तब भी एक रिटायर्ड आदमी वाली जिन्दगी गुजारता था, बहुत अनुशासित जिन्दगी होती थी, डिपार्टमेंट में बहुत ज्यादा नहीं बैठता था, जरूरी काम करके घर आ जाता था। दोपहर को सोना और शाम को क्लब चले जाना। अब मामूल ये है कि सुबह डिपार्टमेंट नहीं जाना होता, सुबह में अखबार पढ़ता हूँ, थोड़ा बहुत कुकिंग करता हूँ क्योंकि खाना बनाने का मुझे शुरू से की शौक रहा है। रात में बहुत देर तक जागता हूँ कुछ शायरी वगैरा करता हूँ और सवेरे जल्द उठता हूँ।
साहित्य की शायरी और मुशायरे की शायरी में आप क्या फर्क समझते हैं?
पहले ऐसा नहीं था, मुशायरे की शायरी और साहित्य की शायरी अलग नहीं होती थी। जिगर, फानी, हसरत, मजाज+ आदि ये सभी मुशायरे में भी जाते थे। ये लोग मुशायरे के शायर और साहित्यकार दोनों थे। यह दौर काफी दिन चलता रहा। अब मुशायरे बड़े पैमाने पर चलने लगे हैं। अदब (साहित्य) में भी ऐसा हुआ कि कुछ लोग ऐसे आ गये जिन्होंने अदब को अलग करना चाहा कि यह खास चीज+ है इसे छपना चाहिए। इधर उन शायरों की तादात बढ़ गई जो रिफॉर्म करते हैं क्योंकि पूरे देश में हर रोज+ लगभग १०-१५ बड़े मुशायरे होते हैं। जाहिर है कि इतने शायरों की जरूरत होती है, तो बहुत शायर ऐसे पैदा हो गये जो सिर्फ मुशायरे के शायर हैं लेकिन अदब के शायर भी मुशायरे में जाते हैं।
आपने एक लम्बा युग देखा है। शायरी के स्तर से आप पहले की शायरी को बेहतर मानते हैं या इस युग की शायरी को?
जिस युग में मैंने शायरी शुरू की थी तब अच्छे शेर कहना काफी मुश्किल होता था। उस युग में अपना नाम पैदा करना बहुत दुश्वार था, एक खास नुक्तानजर की शायरी हो रही थी। अब २५-३० साल से ऐसी फजा हो गयी है कि खराब शायरी करना मुश्किल है लेकिन बहुत अच्छी शायरी करना भी मुश्किल है।
मतलब शायरी का म्यार अब कुछ बेहतर हो गया है?
जी हाँ, अब कुछ बेहतर हो गया है अदब का एक सीरियस तसव्वुर आ गया है। अदब में जिन्दा रहने के लिए अब आसपास की दुनिया, समाज, मआशरा, सब कुछ होना चाहिए लेकिन ये अदबी नजरिये से होना चाहिए।
आप जनवादी लेखक संघ अलीगढ़ के अध्यक्ष भी हैं आप इस संघ से क्यों जुड़े, आप इसके द्वारा क्या काम कर रहे हैं?
मेरी सोच यह है कि साहित्य को अपने दौर से अपने समाज से जुड़ा होना चाहिए, मैं साहित्य को मात्र मन की मौज नहीं मानता, मैं समझता हूँ जब तक दूसरे आदमी का दुख दर्द शामिल न हो तो वह आदमी क्यों पढ़ेगा आपकी रचना को। जाहिर है दुख दर्द ऐसे हैं कि वो कॉमन होते हैं। जैसे बेईमानी है, झूठ है, नाइंसाफी है, ये सब चीजें ऐसी हैं कि इनसे हर आदमी प्रभावित होता है। कुछ लोग कहते हैं कि अदब से कुछ नहीं होता है। मैं कहता हूँ कि अदब से कुछ न कुछ होता है।
क्या अदब से समाज को जोड़ने के उद्देश्य से आप इस संस्था से जुड़े हैं।
समाज भी जुड़ता है, समाज में एक चेतना जगाते रहना और समाज में एक अच्छी बात पहुँचाना और समाज में एक अहसास पैदा करना, बेसिक काम है बुद्धिजीवी वर्ग का वो यह अहसास पैदा करें कि ये चीज बुरी हैं या नहीं है।
इस संघ का मुख्य उद्देश्य क्या है?
यही कि हम लोग एक जगह जमा हों, बहुत सी चीजों पर ग़ोरो-फिक्र करें। बहुत सी बातें मेरी समझ में आ रही हैं आपके नहीं आ रही हैं। जब एक्सचेंज ऑफ व्यूज होता है तो अपने अनुभव और अध्ययन के आधार पर बहुत सी धुंध छटती है। लोगों के बीच जाना, उनसे जुड़ना और उनके दुख दर्द में शरीक होना यह बेसिक मकसद है इसका।
आप इससे समझते हैं कि अपने मकसद में कामयाब हो रहे हैं?
बहुत कामयाब हैं, हम तो अलीगढ़ में समझते हैं कि कम से कम हिन्दी-उर्दू लेखक एक जगह मिलते हैं, दो भाषाएँ करीब आ रही हैं। जब शहर में कभी दंगा होता है तो हम मुखतलिफ चेतना पैदा करते हैं। कभी पीस मार्च करते हैं कभी कुछ और करते हैं।
जब साम्प्रदायिक दंगे होते हैं, उस स्थिति में साहित्य क्या भूमिका अदा करता है?
दंगे के बारे में कोई नहीं कहता कि यह अच्छी चीज+ है। बुरी चीज को बुरा समझते रहें यह हम लोगों का बुनियादी मकसद है, उसको अच्छा न समझने लगें। हमारे मजहब के लोग थे इसलिए सही हुआ, हम सही रास्ते पर है, वो गलत रास्ते पर हैं वगैरा। यानी उसका रिजल्ट जो है बुरा है। बुराई का एहसास हो आदमी को। कम से कम हम यह तो समझें कि कुछ कर नहीं सके लेकिन यह समझें जो हो रहा है वो बुरा हो रहा है। यह समझना भी किसी सोसाइटी के लिए महत्त्वपूर्ण है।

1 टिप्पणियाँ:

Surakh 11 मई 2008 को 8:32 am बजे  

अच्छा लेख
बेहतर संदेश
किसी टिप्पणी का मोहताज नहीं
शुक्रिया

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