मंगलवार, 20 मई 2008

मेरे पहले राजनीतिक एवं साहित्यिक गुरु डॉ. रामविलास शर्मा : डॉ. शिव कुमार मिश्र

डॉ. सूर्यदीन यादव
आपकी इजाजत हो तो मैं इस साक्षात्कार की शुरुआत कुछ व्यक्तिगत प्रश्नों से करना चाहता हूँ।
पूछिए।
सबसे पहले आप अपने घर-परिवार तथा विद्यार्थी जीवन पर थोड़ा प्रकाश डालें, जैसे कि आपकी शिक्षा कहाँ और किन परिस्थितियों में हुई? आदि।
व्यक्तिगत जीवन और व्यक्तिगत जीवन संघर्षों के बारे में बात करने में मुझे हमेशा बहुत संकोच रहा है। आपने पूछा है, इस कारण केवल एक प्रश्न के अन्तर्गत ही इस बारे में मैं बात करूँगा। मेरे व्यक्तिगत जीवन में ऐसी कोई खास बात नहीं है, जिसको अलग से रेखांकित किया जाए। सामान्य निम्न मध्यम वर्ग के परिवार में जन्म हुआ। माता-पिता, दो बड़े भाई तथा दो छोटी बहनें, संयुक्त परिवार का यही रूप रहा। पिताजी डाकखाने के मुलाजिम थे। आर्थिक विपन्नता भले न हो, सम्पन्नता भी नहीं रही। भाइयों के विवाह हुए और इण्टरमीडिएट की परीक्षा देते ही मेरा अपना विवाह भी हो गया। जब सन्‌ १९५२ में मैंने एम.ए. पास किया, तब तक परिवार 17-18 सदस्यों का हो चुका था। इच्छा थी लखनऊ या इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने की, परन्तु आर्थिक साधन नहीं थे। कानपुर से ही सन्‌ ४६ में मैट्रिक, सन्‌ ४८ में इण्टरमीडिएट, सन्‌ ५० में बी.ए. तथा सन्‌ १९५२ में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर से लेकर एम.ए. तक कानपुर के डी.ए.वी. कालेज का छात्र रहा। १९५३ में एल.एल.बी. की परीक्षा भी वहीं से उत्तीर्ण की। तब तक मैं एक बेटी का पिता बन चुका था। संप्रति-मैं तीन बेटियों का पिता हूँ। तीन बेटियाँ अपने-अपने विषयों में पी-एच.डी. हैं, परन्तु सभी गृहणियाँ हैं। नौकरी किसी ने नहीं की। सब अपने-अपने घर-परिवार में सुखी हैं।
इच्छा थी हिन्दी साहित्य में शोधकार्य करने की। परन्तु यह भी संकल्प था कि शोध या तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में करूँगा या आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी के निर्देशन में, जो उस समय हिन्दी के सबसे ख्यात आचार्य थे। किसी से भी व्यक्तिगत परिचय नहीं था। आर्थिक साधन ऐसे नहीं थे कि बनारस या सागर जाकर शोध कार्य करूँ। दोनों आचार्यों को पत्र लिखता रहता था, परन्तु उत्तर नहीं मिलते थे। सन्‌ १९५२ से ५६ तक का समय दूसरी उधेड़ बुन में बीता।
कानपुर के परेड मार्केट में किताबों की एक प्रसिद्ध दुकान किताब घर के नाम से थी। उसके मालिक मेरे एक दूर के रिश्तेदार थे। वे प्रकाशक भी थे। एम.ए. में अध्ययन के दौरान और उसके बाद भी मेरा अधिक समय उनकी दुकान में ही बीतता था। वे मेरी परेशानी और मेरी इच्छा को जानते थे। उन्होंने मेरे सामने दो-एक छात्रोपयोगी पुस्तकें लिखने का प्रस्ताव किया, ताकि मैं कुछ कमा सकूँ और घर परिवार को सहयोग दे सकूँ। मैंने कुंजियाँ लिखने से साफ इंकार कर दिया। अन्ततः उनकी प्रेरणा से १९५३ में जयशंकर प्रसाद की कामायनी पर ढाई-तीन सौ पृष्ठों की एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी, जिसकी सामग्री का आधार वे नोट्स थे जो मैंने एम.ए. के अध्ययन के दौरान तैयार किये थे। साथ में कामायनी की टीका भी की, जिसका आधार उस समय प्रकाशित श्री विश्वंभर मानव की टीका थी। इसे संयोग कहें या मेरा भाग्य कि पुस्तक का पहला संस्करण एक वर्ष में ही बिक गया। लगभग ६०० रुपये रॉयल्टी के मिले, जो मैंने प्रकाशक के पास जमा कर दिये। सन्‌ १९५४-५५ में एक दूसरी पुस्तक बाबू वृन्दालाल वर्मा के उस समय तक प्रकाशित सारे ऐतिहासिक-सामाजिक उपन्यासों को केन्द्र में रखकर लिखी। यह पुस्तक भी तीन सौ पृष्ठों की थी। इसका पहला संस्करण भी एक वर्ष के भीतर बिक गया। जहाँ तक मेरी जानकारी है, बाबू वृंदावन लाल वर्मा के उपन्यास साहित्य पर हिन्दी में यह पहली पुस्तक थी। इसकी रॉयल्टी भी ६-७ सौ रुपये मिली। अब मेरे पास लगभग डेढ़ हजार रुपये थे। अब मैं बाहर शोध के लिये जा सकता था। पिताजी बहुत उदार मानस के थे। परिवार के भरण-पोषण के लिए उन्होंने मुझे आश्वस्त किया और मुझे आशीर्वाद दिया। ये दोनों पुस्तकें मैंने उस समय के ख्यात सभी विद्वानों को भेजी थीं, जिनके पत्रभी मिले थे। उन विद्वानों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और आचार्य वाजपेयी जी भी थे। अकस्मात सन्‌ १९५६ में आचार्य वाजपेयी का एक कार्ड मुझे मिला कि मैं उनसे सागर में मिलूँ। मैं तत्काल सागर पहुँचा और उन्होंने मुझे अपने निर्देशन में शोध करने की अनुमति दे दी। दो वर्षों तक अपने कमाये कुछ पैसों के आधार पर शोध कार्य चला। बीच में आचार्य वाजपेयी ने एक प्रोजेक्ट के तहत कुछ आर्थिक सहायता दी और मेरा कार्य निर्विहन पूरा हो गया। मैं आचार्य वाजपेयी जी का स्नेह भाजन तो बना ही, सन्‌ १९५९ में सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मेरी नियुक्ति भी हो गई। यह है मेरे इस समय तक के जीवन की संक्षिप्त कथा। जैसा मैंने कहा कि इसमें ऐसा कुछ भी खास नहीं, जो मेरे जैसे तमाम दूसरे लोगों के जीवन में घटा हो।
मार्क्सवाद की ओर झुकाव कब और कैसे हुआ?
कानपुर के जिस मुहल्ले में मेरा बचपन बीता, मैंने बचपन से ही मजदूरों के जुलूसों का एक सिलसिला देखा। कानपुर एक औद्योगिक शहर है। मजदूर हड़ताल करते, जुलूस निकालते, बड़ी-बड़ी सभाएँ होतीं, मेरे मन पर शुरुआती दौर में इन सब बातों का सघन प्रभाव रहा। सन्‌ १९६४ में मैट्रिक पास कर डी.ए.वी. कालेज में इण्टर का छात्र बना और उसी समय छात्रों की वामपंथी राजनीति से जुड़ गया। कालेज में छात्रों के तीन संगठन थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, कांग्रेस की स्टूडेंट्स, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी का आल इण्डिया स्टूडेंट्स फेडरेशन। कालेज में इंटर से एम.ए. तक सबसे मेधावी छात्रों का संबंध फेडरेशन से था। मेरा संपर्क भी फेडरेशन के छात्रनेताओं से हुआ और मैं उनके गोल में शामिल हो गया। बीच-बीच में परेड स्थित कामरेड पार्टी के दफ्तर के चक्कर भी लगाने लगे। इसी बीच यशपाल के उपन्यास और राहुल सांकृत्यायन की किताबें भी पढ़ीं, जिनके जरिये भी मार्क्सवाद को जाना समझा। जैसे-जैसे आगे की कक्षाओं में बढ़ता गया, अंग्रेजी में प्रकाशित मार्क्सवादी साहित्य की पुस्तकें भी पढ़ीं। जब एम.ए. में था तभी सन्‌ १९५२ में प्रगतिशील लेखक संघ के किसी कार्यक्रम में डॉ. रामविलास शर्मा कानपुर आये थे। कानपुर के प्रगतिशील साथियों ने उनसे मेरा परिचय कराया और उनका स्नेह भी मुझे मिला।
सन्‌ १९५२ से ५६ तक जब मैं सड़कों पर था, प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया और इसी दौर में मार्क्सवाद का जितना अध्ययन कर सकता था किया। डॉ. रामविलास शर्मा से पत्राचार भी इसी समय से प्रारम्भ हुआ। वे मेरे राजनीति और साहित्य के पहले गुरु हैं। सन्‌ १९५३ में कानपुर की स्टूडेन्ट फेडरेशन की इकाई का अध्यक्ष भी रहा और प्रगतिशील लेखक संघ में मेरी सक्रियता तो थी ही। कानपुर के उस समय के ख्यात प्रगतिशील लेखकों और विचारकों से घनिष्ट संबंध भी बने, जिनमें श्री शिव वर्मा और शीलजी मुख्य हैं।
आपके गुरुजी, आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी भिन्न विचारों और संस्कारों के व्यक्ति थे। फिर भी आप उनके प्रियपात्रकैसे बन गये। उनके साथ आपने कैसे निभाया।
आचार्य वाजपेयी के पास मैं सन्‌ १९५६ के अंत में गया और जैसा मैं कह चुका हूँ कि इससे पहले सन्‌ १९५२ में रामविलास शर्मा जी से मेरी भेंट हो चुकी थी। पत्राचार भी शुरू हो गया था और उनसे दो-तीन बार मिल भी चुका था। आचार्य वाजपेयी से मिलने सागर जाने से पहले मैं डॉ. रामविलास शर्मा से मिला भी था और उन्हें अपने सागर जाने की बात बता दी थी। वे आचार्य वाजपेयी के गाँव-घर के पास के रहने वाले थे ही, उनके कर्म विचारों और उनके साहित्य से भली-भाँति परिचित भी थे तथा उनके मन में आचार्य वाजपेयी के प्रति आदर का भाव भी था। उन्होंने मुझे आश्वत किया था कि जनतांत्रिक सोच के आचार्य वाजपेयी के निर्देशन में निर्विहन अपना शोधकार्य कर सकूँगा।
लगभग एक वर्ष तक मैंने अपनी वैचारिक आस्थाओं और रामविलास जी से अपने संबंधों के बारे में नहीं बताया। जब मुझे विश्वास हो गया कि मैं स्नेह भाजन बन चुका हूँ, मैंने उन्हें सब कुछ बताया। उन्होंने मेरी बातें ध्यान से सुनी और मुझे अपने अन्तर्गत शोध की अनुमति दे दी। उन्होंने मुझसे कहा : डॉ. रामविलास शर्मा मेरे मित्र हैं और साहित्य और जीवन में प्रगतिशील विचारों का मैं हमेशा समर्थक रहा हूँ। प्रगतिशील लेखक संघ की काशी इकाई का अध्यक्ष भी मैं रहा हूँ और मार्क्सवाद की शक्ति तथा सीमाओं, दोनों का मुझे बोध है। तुम्हें जो विषय दिया गया है, उस पर कार्य करो और सब कुछ मेरे ऊपर छोड़ दो।''
सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में मेरी नियुक्ति तो हुई ही। जब तक आचार्य वाजपेयी जीवित रहे, मैं उनकी सघन आत्मीयता के दायरे में रहा। शोध के दौरान उन्होंने कभी भी मुझे विचार के स्तर पर दबाने की कोशिश नहीं की। हाँ, मेरे अतिवादी आग्रहों को जब-तब संतुलित जरूर किया। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है। कुछेक गहन संकटों के क्षण में, मसलन सन्‌ १९६२ में चीनी आक्रमण के समय जब कम्युनिस्टों की व्यापक धरपकड़ हो रही थी, उन्होंने एक रात मुझे बुलाया और कहा कि उन्हें स्थानीय खुफिया विभाग से सूचना मिली है कि किसी ने मेरे बारे में कुछ लिखकर भेजा है। मेरे परिवार की देखरेख की पूरी जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने मुझे १५ दिनों के लिए कहीं बाहर चले जाने जाने के लिए कहा। बाद में उनका संदेश पाकर मैं सागर लौटा, तब तक संकट के बादल छट चुके थे। उन्होंने मुझसे यहाँ तक कहा था कि यदि तुम गिरफ्तार हो जाते हो, तो मैं अदालत में तुम्हारी जमानत लूँगा। ऐसे उदार गुरु को क्या कोई कभी भूल सकता है।
आचार्य वाजपेयी निश्चय ही रोमानी मनोभूमि के समीक्षक विचारक थे। कई मुद्दों पर मार्क्सवाद से उनकी असहमति थी। परंतु वे निहायत जनतांत्रिक सोच के व्यक्ति थे। मेरी उनसे अनेक बार लंबी बहसें हुईं। तब मेरे साथ मेरे मार्क्सवादी साथी चंद्रभूषण तिवारी भी हुआ करते थे, जो आचार्य वाजपेयी के ही निर्देशन में शोधकार्य कर रहे थे। जो स्नेह आचार्य वाजपेयी का मुझे मिला और जो उनके बारे में मेरे अनुभव हैं, वही चन्द्रभूषण तिवारी के भी थे। आचार्य वाजपेयी की मनोभूमि पर उस समय हम लोग छाए हुए थे बहसें होती थीं, वैसी ही, जैसी गुरु-शिष्य के बीच में होती हैं या होनी चाहिए। आचार्य वाजपेयी के नियंत्राण पर डॉ. रामविलास शर्मा, नागार्जुन, राहुल जी, केदारनाथ अग्रवाल सभी सागर आये। मेरा मानना है कि कुल मिलाकर वाजपेयी के विचार मार्क्सवाद-विरोधी नहीं हैं। यद्यपि जैसा मैंने कहा कि कुछ मुद्दों पर उनकी असहमतियाँ जरूर रहीं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उनके बारे में मुझसे जो कुछ भी कहा था, वह एकदम सत्य था। उन्होंने मुझसे एक बार यह भी कहा था कि तुम लोग वाजपेयी जी को मार्क्सवादी बनाने का उपक्रम न करना। वे जैसे हैं, उसी रूप में हमारे मद्दगार हैं। उनके विचारों का इस्तेमाल करो। रामविलास जी की सलाह को मैंने बराबर ध्यान में रखा और आचार्य वाजपेयी के साथ अंत तक जुड़ा रहा और आज भी मेरे मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा है। आज मैं जो कुछ हूँ, मेरे निर्माण में उनका बहुत योगदान है।
आप मार्क्सवादी हैं, धर्म को आप किस रूप में लेते हैं?
मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक विचारधारा है, जिसका संबंध दर्शन की भौतिकवादी शाखा से है। मार्क्स ने इस दार्शनिक भौतिकवाद को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का रूप दिया। दर्शन की यह भौतिकवादी शाखा संसार के कर्ता या कारण के रूप में किसी भी परम सत्ता को स्वीकार नहीं करती। इसके लिए प्रकृति ही एक मात्र सत्य है, जो अनादि और अनंत है। जहाँ तक धर्म का सवाल है, धर्म एक मिथ्या चेतना है, जिसे मार्क्स ने जनता के लिए अफीम कहा है। मार्क्स की इस उक्ति को बहुत विज्ञापित किया गया है, जबकि अपनी व्याख्या में मार्क्स ने धर्म के बारे में कुछ और बातें भी कहीं हैं। वस्तुतः धर्म जब संस्थागत बनता है, उसका मतवाद खड़ा होता है, उसमें तरह-तरह के कर्मकांड जुड़ते हैं। मार्क्सवादी धर्म से जुड़े इन पाखंडों और मिथ्या विचारों का विरोध करते हैं। धर्म अपने बुनियादी रूप में कर्तव्य का, ईमानदार, मेहनत और मशक्कत की कमाई का पर्याय है। संतों ने धर्म के इसी रूप को माना और ग्रहण किया है। उससे जुड़े पाखंडों की धज्जियाँ उड़ाई हैं। धर्म के नाम पर मनुष्यता का जितना रक्त बहा है, उतना युद्धों और महायुद्धों में भी नहीं बहा है। धर्म के बारे में मेरा यही अभिमत है कि उसे कर्तव्य और सेवा के रूप में स्वीकार किया जाए।
लोगों में एक यह भी धारणा है कि मार्क्सवाद परंपरा का विरोधी है।
मार्क्सवाद के बारे में लोगों की यह धारणा निहायत भ्रांत धारणा है। यद्यपि यह भी सच है कि हिन्दी के कुछेक मार्क्सवादी माने जाने वाले रचनाकारों और विचारकों ने इस तरह की भ्रांत धारणा के लिए उन्हें मौका दिया है। मार्क्सवाद से परिचित, विशेषकर मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन आदि के लेखन को जिन्होंने सही ढंग से पढ़ा है वे स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुँच जायेंगे कि परंपरा के बारे में मार्क्सवाद पर लगाया गया यह आरोप एकदम गलत है। मार्क्सवादी विचारकों ने यह कहा है कि परंपरा में जो कुछ प्राणवान और ऊर्जामय होता है, वह आगे के विकास का हिस्सा बनता है, और जो निष्प्राण और रुढ़िबद्ध होता है, वह अपने समय में ही खप जाता है। परंपरा के जीवंत तत्त्वों के विकास का हिस्सा बनाने और उससे प्रेरणा लेने की बात ही सही मार्क्सवादी दृष्टि है। मार्क्स, एंगेल्स एवं लेनिन का लेखन स्वतः इसका प्रमाण है। हिन्दी में शुरुआती दौर में कुछ प्रगतिशीलों के लेखन से इस प्रकार की ग्रंथियाँ जरूर फैलीं, परंतु बाद में स्थिति सामान्य हो गई। डॉ. रामविलास शर्मा की किताब का नाम ही परंपरा का मूल्यांकन शीर्षक से है, जिसमें उन्होंने कहा है कि बिना परंपरा को जाने हम विकास की दिशाएँ निर्धारित नहीं कर सकते हैं। हाँ, मार्क्सवाद का यह आग्रह जरूर है कि परंपरा के प्रति हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो, विवेकपूर्ण हो। परंपरा की पूजा नहीं, उसका विवेक परक अध्ययन होना चाहिए और इस विवेक के तहत उसके संप्राण तत्त्वों की खोज करते हुए आगे के विकास में उनका इस्तेमाल होना चाहिए।
प्रगतिशील विचारधारा के होते हुए भी आपने भक्तिकाल के पक्ष में बहुत कुछ लिखा है; जबकि कई बड़े प्रगतिशील विद्वानों ने भक्तिकाल को खारिज करने की हद तक उसकी आलोचना की है।
डॉ. रामविलास शर्मा की अपने समकालीनों - खासतौर से शिवदान सिंह चौहान, यशपाल, भदंत आनंद कौशल्यायन, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन आदि से जो वैचारिक भिड़ंत हुई और जिसे लेकर कुछ लोग आज भी डॉ. रामविलास शर्मा को दोषी करार दे रहे हैं, उसके मूल में भक्तिकाल-विशेषकर गोस्वामी तुलसीदास को लेकर व्यक्त किये गये उपर्युक्त रचनाकारों - विचारकों और समीक्षकों के विचार ही हैं। परंपरा के वैज्ञानिक मूल्यांकन की बात मैंने ऊपर की है; इन लोगों के इन विचारों में उसी का निषेध है। के. दामोदरन ने अपनी पुस्तक में स्पष्टतः भक्ति आन्दोलन पर लिखते हुए उसके सकारात्मक पहलुओं को जिस तरह विशद् किया है उससे बात साफ हो जानी चाहिए। मेरे अध्ययन का क्षेत्र आधुनिक साहित्य रहा है। भक्ति काल और भक्ति कवियों की और मेरी समज्ञ परंपरा के बारे में मार्क्सवादी विचारों के आलोक में ही हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि मध्यकाल में अनेक ज्वलंत सामाजिक विषयों पर भक्ति के आवरण में ही उसके रचनाकारों और विचारकों ने विचार किया है, जिन्हें हमें संजीदगी से पढ़ना चाहिए। भक्तिकालीन रचनाओं और रचनाकारों में विचारगत अन्तर्विरोध हैं; परंतु उनके साहित्य में ऐसा भी बहुत कुछ है, जो सामंती मूल्यों के विरोध में है, जनता के पक्ष में है और जो हमारे आज के रचनाकारों के लिए भी एक मिसाल है। यदि हम परंपरा को सही रूप से मार्क्सवादी विचारों के अनुरूप समझते हैं तो हमें निश्चय ही ऐसा बहुत कुछ प्राप्त होता है, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणा है; हमारी विरासत है।
आप अपने तमाम लेखन में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रति बहुत उदार दिखाई पड़ते हैं। इस विषय पर कुछ कहिए।
मेरी दृष्टि में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पहले भी आधुनिक हिन्दी समीक्षा की वृहद्त्रायी के पहले व्यक्ति रहे हैं और आज भी हैं। उनके समीक्षात्मक अवदान से जो लोग ठीक से परिचित हैं, वे इस बात की ताईद करेंगे कि आचार्य शुक्ल ने अपने लेखन से हिन्दी समीक्षा को ऐसा सुदृढ़ वैचारिक आधार प्रदान किया है, सिद्धान्त और व्यवहार दोनों आयामों पर कि उसकी मिसाल नहीं है। आचार्य शुक्ल के विचार बड़ी दूर तक साहित्य और कला के विषय में मार्क्सवादी विचारों की संगति में हैं। यद्यपि आचार्य शुक्ल को मैं न तो मार्क्सवाद के दायरे में लाने का पक्षधर हूँ और न दार्शनिक भौतिकवाद के दायरे में। वे जैसे हैं, और जो हैं, हमारे लिए इसी रूप में बेहद उपयोगी हैं। कविता की उनकी समझ और उसके बारे में उनके विचारों और व्यवहारिक विश्लेषण का मैं दूर तक कायल हूँ। उनका बुद्धिवाद उनकी लोकवादी आस्था उनके अध्ययन का फलक मुझे बराबर उनकी ओर आकर्षित करता रहा है। अब तो उनकी पुस्तक चिन्तामणि के चार भाग सामने आ चुके हैं और परवर्ती जागीर में ऐसी कुछ नयी सामग्री संकलित है, जो उन तमाम भ्रांतियों का निराकरण करती है, जिन्हें उनके आरंभिक लेखन में इंगित करते हुए उन पर वर्णवादी, ब्राह्मणवादी होने जैसे आरोप लगाए गए हैं, और उन्हें साम्प्रदायिक इतिहास दृष्टि का पोषक बताया गया है।
वस्तुतः शुक्ल जी जीवन भर विचारगत आत्म-संघर्ष से गुजरे हैं और आगे चलकर उन्होंने स्वयं अपने पिछले तमाम विचारों को छोड़ा है। जरूरत उनके निहायत वस्तुनिष्ठ और पूर्वाग्रह रहित अध्ययन की है। रहस्यवाद, कलावाद, रीतिवाद आदि का उनका विरोध निहायत तर्क संगत एवं वैज्ञानिक है। जहाँ तक मैं समझता हूँ हमारी समीक्षा में विचारों के स्तर पर उनकी वही भूमिका और उनका वही महत्त्व है, जो रूस में मार्क्सवाद के आने के पहले बेलिन्सकी चेर्नीशेव्स्की, दोब्रोल्यूबोव जैसे विचारकों का था। वे हमारी विरासत हैं और रहेंगे। उनकी विचारगत असंगतियाँ होंगी और हैं; परंतु वे हमारे वैचारिक सरोकारों के अनेक आयामों पर प्रेरणा-स्रोत हैं।
डॉ. रामविलास शर्मा से आप खुद को किन रूपों में प्रभावित मानते हैं।
मैं बता चुका हूँ कि डॉ. रामविलास शर्मा से मैं १९५२ से परिचित हूँ। तब से उनके जीवन पर्यन्त मेरे और उनके संबंध बने रहे। जिस समय मैं कानपुर में सन्‌ १९५२ से ५६ के बीच, प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों में शरीक था, प्रगतिशील समीक्षक के रूप में रामविलासजी शीर्ष पर थे। मैं जब भी उन्हें पढ़ता, उनकी विवेचन शैली और तर्कों से बेहद प्रभावित होता। कालान्तर में उनके विचारों और उनकी समीक्षा की कुछ सीमाएँ भी मेरे सामने स्पष्ट होती गयीं, परन्तु कुल मिलाकर उनके वैदुष्य का प्रभाव मेरे ऊपर बना रहा। मैंने उनके अतिवादी आग्रहों तथा उनकी दीनार सीमाओं से अपने को बचाते हुए, उनमें जो कुछ ठोस और सकारात्मक था, उससे अपना संबंध जोड़ा, उनका स्नेह-भाजन बनकर मैंने उनसे लंबी बहसें भी की। उनके जीवनकाल में उनके कुछ विचारों से असहमत होते हुए मैंने लिखा भी और उनसे बातें भी कीं। मेरे बहुत से तर्कों को उन्होंने माना भी। बावजूद इसके मैंने उनकी समीक्षा से और उनके सानिध्य से बहुत कुछ पाया है। आचार्य वाजपेयी के साथ वे भी मेरी मनोभूमि में हमेशा गुरु के रूप में विद्यमान रहे। स्पष्ट और पारदर्शी भाषा में जटिल से जटिल विषय को सरल बनाकर लिखने की तमीज मैंने उनसे ही सीखी।
मुक्तिबोध के बारे में आपका जो नजरिया है, उसे थोड़ा स्पष्ट करें।
जब मैं सागर में शोध कार्य कर रहा था, मुक्तिबोध सागर विश्वविद्यालय की सेनेट के सदस्य थे, जिसकी बैठकों में वे प्रतिवर्ष आते थे। सागर के कुछ प्रबुद्ध छात्र, जिनमें आज के ख्यात अशोक वाजपेयी भी हैं, उनसे अंतरंग रूप से जुड़े हुए थे। मैं आचार्य वाजपेयी का शोध छात्र था और आचार्य वाजपेयी उस समय नयी कविता-विरोधी के रूप में विज्ञापित किये जा चुके थे। मुक्तिबोध जब भी आते, कोई न कोई विचार गोष्ठी जरूर होती, जिसमें मैं भी शामिल होता। मेरी मुक्तिबोध जी से अंतरंगता नहीं बढ़ सकी; फिर भी मैंने जितना संभव था, मुक्तिबोध को पढ़ा और ऐसे कुछ लोगों से, जो जितने अंतरंग मुक्तिबोध से थे, उतने ही मेरे, मुक्तिबोध के बारे में और भी बहुत कुछ जाना। ऐसे लोगों में एक श्री हरिशंकर परसाई थे। बहरहाल, जैसे मैं मुक्तिबोध को पढ़ता गया, उनसे प्रभावित भी हुआ वे हमारे समय के बड़े ईमानदार, बौद्धिक रचनाकार थे। कालांतर में जब मुक्तिबोध को कुछ लोगों ने एक मिथ बनाकर पेश करना शुरू किया, मेरी उनसे असहमतियाँ बनी और मैंने बराबर उसका विरोध किया। मैंने मार्क्सवाद को जितनी दूर तक जाना समझा है, मैं बराबर इस विचार का रहा हूँ कि किसी भी रचनाकार - विचारक की देवमूर्ति नहीं गढ़नी चाहिए। जबकि मुक्तिबोध को लेकर कुछ लोगों का पहले भी ऐसा ही प्रयास था और आज भी है। मेरा हमेशा से यह विचार रहा है कि हर रचनाकार के अपने अन्तर्विरोध भी होते हैं, जिनसे वह आजीवन जूझता-टकराता है। जरूरत उन अन्तर्विरोधियों को पहचानते हुए उनके बीच से उनकी शक्ति को पहचानने और उजागर करने की है; न कि अन्तर्विरोधों को ढकते हुए अंधभाव से उसे पूजने की। दुर्भाग्य से मुक्तिबोध को लेकर कुछ लोग ऐसा ही कर रहे थे। वे मुक्तिबोध पर किसी भी तरह का प्रश्न चिद्द सहन नहीं कर पाते। मेरी दृष्टि में यह नजरिया सही नहीं है। डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध के बारे में जो स्थापनाएँ दी हैं, मुक्तिबोध के तथाकथित प्रशंसकों ने रामविलास शर्मा की स्थापनाओं को न केवल खारिज किया है, उन्हें मुक्तिबोध विरोधी भी घोषित किया है। जहाँ तक रामविलास शर्मा की स्थापनाओं और निष्कर्षों का सवाल है, उनमें अतिरंजना हो सकती है, परंतु मेरा यह विश्वास है कि रामविलास शर्मा का मुक्तिबोध संबंधी लेखन मुक्तिबोध-विरोधी लेखन नहीं है, वह हमें मुक्तिबोध को समझने में मद्द देती है। उन्होंने मुक्तिबोध के आत्म-संघर्ष को एकदम सही रूप में पहचाना है। उनके अनुसार मुक्तिबोध की सबसे बड़ी समस्या मार्क्सवाद से अपने जीवन, अपने व्यवहार और अपनी रचनाशीलता का संबंध बिठाने की थी। वे मार्क्सवाद को जीना चाहते थे; जबकि उनके मध्यवर्गीय संस्कार उनके आड़े आते थे। वे जीवनभर इस आत्मसंघर्ष को जीते रहे। उनकी बुनियादी समस्या थी, मध्यवर्ग व्यक्तित्वांतरित होकर किस तरह सर्वहारा हो सकता है। मार्क्सवाद उनके लिए, जैसा कि रामविलास जी ने कहा है; जीवनमरण का प्रश्न था। वे उससे हट नहीं सकते थे और उनके मन में जो तरह-तरह के सवाल उठते थे, उन सबका जवाब वे मार्क्सवाद से नहीं पा रहे थे। इसी उधेड़ बुन में वे, योग, रहस्य, तंत्र और न जाने किन-किन विचारकों के विचारों में गोते लगाते थे। मेरे विचार से निहायत प्रतिबद्ध और ईमानदार मार्क्सवादी होते हुए भी उनके विचारों में कुछ ऐसे अवकाश हैं, जिनके नाते कट्टर से कट्टर मार्क्स-विरोधी भी उन्हें अपनी शर्तों पर, अपने तर्कों की ज+मीन पर व्याख्यायित करते हुए आधुनिक हिन्दी का शीर्ष रचनाकार सिद्ध कर ले जाते हैं। इसके माने हैं कि मुक्तिबोध में ऐसा कुछ है, जो दूसरों को उन्हें अपने ढंग से व्याख्यायित करने की छूट देता है। मेरा कहना है कि हम मुक्तिबोध की विचारगत असंगतियों को नजर-अंदाज न करें, उन्हें पहचाने और उनसे सीख लें तथा उनमें जो ताकत है, उसे अपनी विरासत माने और उससे प्रेरणा लें। उनकी या किसी की देवमूर्ति न गढ़ें। अपने इन विचारों के साथ निश्चय ही मुक्तिबोध को अपने समय का बहुत जरूरी और बहुत महत्त्वपूर्ण रचनाकार मानता हूँ। बातें बहुत-सी हैं, जिन्हें मैंने लिखी भी है, फिलहाल इतना ही।
इस समय चर्चा के केन्द्र में जो दो विषय हैं - दलित-विमर्श तथा नारी-विमर्श, उनकी दिशा और दशा पर थोड़ा प्रकाश डालें।
दलित और स्त्री, वस्तुतः हमारी सामाजिक संरचना में सबसे अधिक सताए हुए हैं। इस विषय पर मैंने अन्यत्रविस्तार से लिखा है और कहा है कि हमारी सामाजिक संरचना में उन्हें सच पूछा जाए तो नरक की नियति दी गई है। अपनी साहित्यिक परंपरा को देखें और यथास्थितिवादियों की बात छोड़ दें, तो संवेदनशील रचनाकारों ने और उदार मन के मानवतावादी विचारकों ने इस स्थिति पर बराबर लिखा है और बराबर चिंता जताई है, परन्तु कुल मिलाकर इनके प्रति उनका दृष्टिकोण सहानुभूतिपरक और मानवीय करुणा से परिचालित ही रहा है जिस सामाजिक संरचना के ये शिकार हैं; उसके खिलाफ आवाजें या तो उठी ही नहीं या एक सुधारवादी मानसिकता के तहत सामाजिक विसंगतियों पर रंग-रोगन चढ़ाकर उस इमारत को दुरुस्त बनाने की बातें ही की गई हैं। मध्ययुग के निर्गुण संतों के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो समूचे भारतीय साहित्य में लंबे समय तक किसी दलित के बड़े रचनाकार के रूप में सामने आने का उदाहरण नहीं मिलता। यह बात स्त्री के संदर्भ में भी उतनी ही सही है।
आधुनिक युग में खासतौर से, नवजागरण काल से स्थितियों के बदलने के क्रम में स्त्रीऔर दलित-अस्मिता के सवाल कुछ उभरकर सामने आए। आजादी के बाद दलित और स्त्री अस्मिताएँ कुछ तो बदली हुई परिस्थितियों के नाते और कुछ पश्चिमी जगत्‌ में, खासतौर से स्त्री विषयक मुद्दों के उभरने के नाते अधिक प्रखर होकर सामने आईं। आज नई सदी में, हमारे प्रमुख साहित्यिक विमर्शों में स्त्री और दलित विमर्श हैं। जैसा मैंने कहा, मैंने इन दोनों मुद्दों पर थोड़ा-बहुत लिखा है, जो प्रकाशित है। संप्रति बहुत संक्षेप में बात करना चाहूँगा। पहले स्त्रीविमर्श को लें। स्त्री लेखन और स्त्री-विमर्श के नाम पर जो कुछ लिखा और कहा गया है उससे बुनियादी तौर पर सहमत होते हुए संप्रति मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि स्त्री लेखन और स्त्री-विमर्श का दायरा व्यापक हो और उसमें उस स्त्री को भी शामिल किया जाए जो गाँवों, कस्बों और दूर-दराज के अंचलों में हाशियों की जिन्दगी जी रही है। अभी स्त्री लेखन का अधिकांश मध्यवर्गीय दायरे में है, उसे बढ़ाया जाए। दूसरी बात, जरूरी है कि जो हजारों सालों के जड़ संस्कारों को ढोते हुए गुलामी में ही सुख का अनुभव कर रही है। अपने तन और मन पर पुरुष द्वारा अंकित सैंकड़ों निशानों को लिए हुए, उसी के कंधों पर चढ़ाकर परलोक जाना चाहती है। स्त्री-अस्मिता का एक शत्रु सामने है - पितृ सत्तात्मक सामाजिक संरचना, पुरुष दर्प आदि; परंतु उसका एक शत्रु जड़ संस्कारों के रूप में खुद स्त्री के भीतर है, जिससे पुरुष की सहायता से स्त्रीको अपने भीतर लड़ना है। स्त्री-मुक्ति का सवाल स्त्री-जाति की मुक्ति का सवाल है और मुक्ति जब भी होगी, सबकी होगी और एक बार में होगी। स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन में जब तक यह बात शामिल नहीं होती, स्त्री-मुक्ति के कोई मायने नहीं दिखाई देते। एक और बात, स्त्री मुक्ति का प्रश्न उपन्यास, कहानियों से आगे सामाजिक जीवन की सच्चाई बने। स्त्री-मुक्ति का तभी कोई अर्थ है और वह कार्य हड़बड़ी से नहीं हो सकता है। इस अभियान को बहुत संजीदगी से आगे चलना चाहिए।
इसी तरह दलित-विमर्श के बारे में भी मेरे जो कुछ विचार हैं, वे मेरे अनेक लेखों में विस्तार के साथ आ चुके हैं। मराठी के दया पवार से मेरे घनिष्ट संबंध रहे हैं और लंबी बातचीत भी रही है। हिन्दी के भी ओमप्रकाश वाल्मीकि तथा सूरजपाल चौहान जैसे दलित लेखकों से मेरे अच्छे संबंध और पत्राचार भी है। जिस तरह मुझे इस बात की खुशी है कि आज स्त्रीअपनी कलम से, अच्छी भाषा में अपने मन की बात लिख रही है, उसी तरह मुझे इस बात की भी खुशी है कि जिन लोगों के लिए हमारी सामाजिक संरचना के विधाताओं ने हमेशा-हमेशा के लिये पढ़ने-लिखने और सोचने के क्षेत्र निषिद्ध करार दिये थे, आज वे दलित अपनी कलम से अपनी भाषा में अपने मन की बात लिख रहे हैं और उस तरह से ही हमें रू-ब-रू कर रहे हैं, जिसे सदियों से वे सहते और भोगते आ रहे हैं, जहाँ तक दलित लेखन का सवाल है, उसके जरिये हिन्दी में पहली बार कुछ अछूते अनुभव-संवेदन हमारे साहित्य में आए हैं। दलित लेखकों की आत्मकथाओं ने और कहानियों ने निश्चित रूप से हिन्दी आत्मकथा और कथा-साहित्य को समृद्ध किया है। जहाँ तक वैचारिक लेखन का प्रश्न है, कुछ ऐसे मुद्दे जरूर उभरे हैं, जिन्हें लेकर अब तक दलित लेखकों और उनके समर्थक गैर-दलित रचनाकारों और विचारकों में आम सहमति नहीं बन सकी है। जहाँ तक मेरा विचार है पारस्परिक संवाद जरूरी है और यह भी जरूरी है कि रूढ़िवादिता और दुराग्रहों से अलग संजीदगी से इस संवाद को जारी रखा जाए ऐसे तत्त्व भी हैं जो बजाय इसके कि संवाद को जारी रखने में मद्द दे, चाहते हैं कि सब कुछ उन्हीं की शर्तों पर तय हो। संवाद का यह नजरिया सही नहीं है। मैंने इस विषय पर काफी लिखा है। जरूरी है कि दलित और उनके समर्थक गैर-दलित लेखक-विचारक अपने पूर्वग्रहों को छोड़ें, अपने अंतर्विरोधों के प्रति सजग हों, और मिल-जुलकर उस व्यवस्था के प्रतिरोध में खड़े हों, जो यथास्थिति बनाए रखना चाहता है। किसी भी ओर से उपक्रम न हों, जो संवाद धर्मिता को क्षति पहुँचाए। ऐसे उपक्रम इस बीच हुए हैं, जो सही नहीं हैं जो संवाद को विवाद में बदलना चाहते हैं। दलित-मुक्ति का सवाल हो अथवा दलित-अस्मिता की बहाली का सवाल हो, इसे मिल-जुलकर ही उन लोगों के जरिये सुलझाया जा सकता है, जो यथास्थितिवादियों और कट्टरपंथियों के विरोध में मुद्दे पर एक मत हैं।

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